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________________ १५४ उपदेशामृत मुमुक्षु-“सत्पुरुषोंने जो सद्गुरुकी भक्तिका निरूपण किया है, वह भक्ति मात्र शिष्यके कल्याणके लिये कही है। जिस भक्तिके प्राप्त होनेपर सद्गुरुके आत्माकी चेष्टामें वृत्ति रहे, अपूर्व गुण दृष्टिगोचर होकर अन्य स्वच्छंद मिटे और सहज ही आत्मबोध हो, यों जानकर जिस भक्तिका निरूपण किया है, उस भक्तिको और उन सत्पुरुषोंको पुनः पुनः त्रिकाल नमस्कार हो!" प्रभुश्री-इसका आशय समझना चाहिये। उसके बिना अधूरापन है। "जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।" जो जागे उसे कहना है। शेष सब तो कलबलाहट है। कहना है आत्माको । कहना अनकहा हो जायेगा, सुनना अनसुना हो जायेगा। सब वहीका वही। बात समझमें आनी चाहिये । थप्पड़ मारकर जगाया है। आत्माको जगाना है। वह कैसे जागेगा इसका पता नहीं है। कैसे जागेगा? कहिये। मुमुक्षु-सद्बोधसे। प्रभुश्री-हाथ नहीं आयेगा। यह तो एक सद्गुरु जानते है। छह खंडके भोक्ताके घर नौ निधान चले आने जैसा है। तैयार हो जायें। आपकी देरीसे देर है। १ सिर काटे उसे माल मिले।' सुना पर गुना नहीं। गुननेसे छुटकारा है। बात सही है। २"रंकके हाथमें रत्न" ऐसी बात इस १. एक कुम्हारको मिट्टी खोदते एक पुतला मिला। वह उसने राजाको भेंट कर दिया। राजाने उसे सभामें रख दिया। उस पुतलेके गलेमें लिखा था कि 'सिर काटे उसे माल मिले।' जो पढ़ता वह यही समझता कि अपना सिर काटे उसे माल मिले। एक क्षत्रिय वहाँ आया, उसने पढ़ा और तलवारसे पुतलेका सिर काट दिया तो उसमेंसे सोनेकी मोहरें निकली। २. एक लकड़हारा बहुत गरीब था। जंगलसे लकड़ी लाकर शहरमें बेचता। पैसा मिलता उससे तेल, अनाज और एरंडीका तेल खरीदता। नित्य लाता और नित्य पूरा हो जाता। लकड़ी बेचने शहर में सब तरफ घूमता, लोगोंको मौजशौक करते देखता और स्वयं वैसा सुख पानेकी इच्छा करता, पर साधन न होनेसे निराश होकर हारा-थका सो जाता। ___ एक रात वह जल्दी उठ गया, तब उसे अपने दुर्भाग्य पर विचार आने लगा। वह सोचने लगा कि क्या करनेसे ज्यादा पैसा मिल सकता है? उसे उपाय सूझा कि यदि चंदनकी लकड़ी मिले तो अधिक पैसा मिल सकता है। चाँदनी रात थी अतः फिर सो जानेके बदले पाथेय लिया और जंगलमें निकल पड़ा। चंदनकी सुगंध आये तब तक चलते रहना-ऐसा सोचकर वह १० मील चला गया, पर चंदनका कहीं पता न लगा। तब थककर नदीके किनारे पाथेय खाने बैठा। वहाँ नदीका किनारा टूटा हुआ था, उसमें कुछ पत्थर जैसा चमक रहा था। बच्चोंको खेलनेके काम आयेगा ऐसा सोचकर उसने उस पत्थरको कपड़ेके पल्लेमें बाँध दिया। फिर जो मिली वे लकड़ियाँ लेकर वापस आ गया। शहरमें लकड़ी बेचकर एरंडीका तेल आदि वस्तुएँ लेकर शामको निराश होकर घर आया। पूरे दिनका थका खाट पर करवट ली तो पल्लेमें बँधा रतन चुभा। पल्लेसे खोलते ही घरमें उजाला हो गया। अतः बच्चोंको खेलनेके लिये देनेके बदले उसने उसे ताकमें रख दिया। मनमें संतोष हुआ कि चलो, भटकना बेकार नहीं गया, नित्य एरंडीके तेलके पैसे तो बचेंगे। __वह प्रतिदिन लकड़ी लाता और बेचता। एरंडीके तेलके पैसे बचते उससे गुड लाता और प्रसन्न होता। यों छ महीने बीत गये, पर उसे रत्नकी पहचान नहीं हुई। इतनेमें एक जौहरीके यहाँ भोजका प्रसंग आया। अतः एक दिन उस लकड़हारेके यहाँ अपने घर लकड़ी लानेके लिये कहने गया। उसके यहाँ ताकमें चिंतामणि रत्न देख उसे आश्चर्य हुआ कि 'रंकके हाथमें रत्न!' दया आनेसे उसने लकड़हारेको चिंतामणि रत्नकी पहचान कराई और कहा कि सुबहमें पूजा कर इससे जो माँगोगे वह मिलेगा। यह सुनकर वह खुशखुशाल हो गया। सुबहमें पूजा कर रत्नसे सभी आवश्यक वस्तुएँ माँग ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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