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________________ १४० उपदेशामृत तो भी वे बड़े हैं, कठोर वचन कहनेवाला संसारमें कोई नहीं मिलता, भले ही बोल गये; अतः बुरा नहीं लगाना चाहिये-यों गंभीरता रखकर सहनशीलता और विनयपूर्वक व्यवहार करेंगे तो सुखी होंगे। ३० हमारे आत्मामें किसी प्रकारका विषमभाव नहीं है। आप हमारे साक्षात् आत्मा है। 'सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो' यही मार्ग है। परमगुरुके परम हितकारी वचन स्मृतिमें लाकर चित्तवृत्ति सत्पुरुषके वचनमें, बोधमें रखनेसे कोटि कर्मका क्षय होता है। क्षमा, समतासे सहना, सहनशीलता, धैर्य, शांति, समभाव-यह परमौषधि ज्ञानियोंने बताई है, इसके द्वारा अनंत दुःखसे भरे हुए इस संसारसमुद्रको पार किया जा सकता है। शारीरिक वेदना वेदनाके क्षयकालमें निवृत्त होगी और असाताके बाद साता दीखेगी। धूपके बाद छाया और छायाके बाद धूप, यों पानी भरकर आते और खाली होते अरहटके चक्रकी भाँति हो रहा है। समझदार व्यक्ति उसमें हर्षशोक नहीं करते । अपितु असाताके प्रसंगको परीक्षाका समय मानकर उसका सामना करनेको उद्यत हो जाते हैं, तथा विशेष वीर्य स्फुरित कर असाताके समयको आत्मकल्याणका उत्तम निमित्त बना लेते हैं। संसारकी असारताको जानकर, एकत्व भावना भाते हुए, असंग आत्माका निरंतर लक्ष्य रखते हैं। अनेक महापुरुषोंको कष्टके प्रसंग आये हैं। श्री गजसुकुमारके सिर पर पाल बाँधकर धकधकते अंगारे भरे, उस समयकी असह्य वेदनाको समभावसे श्री नेमिनाथ भगवानके वचनबलके आधार पर सहन करनेसे हजारों भव करनेवाले थे, उस सबको समाप्त कर मोक्ष पधारे। वैसे ही श्री अवंतिसुकुमाल जैसे सुकोमल शरीरवालेको, वनमें तीन दिन तक सियार पैरसे लेकर आँतों तक माँस तोड़कर खाने पर भी, सहन करना पड़ा है। उनकी समताको धन्य है कि सद्गुरु द्वारा बताये गये आत्माको वे समयमात्रके लिये भी न भूले । इसी प्रकार पांडवोंको तप्त लोहेके लाल सुर्ख आभूषण पहनाये, फिर भी मनमें कुछ भी न लाकर शरीरको जलने दिया और आत्मामें दृष्टि रखकर कल्याण कर गये। ऐसे दृष्टांत याद रखकर धैर्य धारण करें। इस जीवने नरक निगोद आदिके दुःखोंका अनंत बार अनुभव किया है। सहन करनेमें कुछ कमी नहीं रखी है। हिम्मत हारने जैसा नहीं है। कायर बनने पर भी कर्म छोड़ेंगे नहीं। अतः शूरवीरता ग्रहण कर, ज्ञानीके समताभावके मार्गको ग्रहण कर, देहादिसे अपनी भिन्नता विचार कर द्रष्टाभावसे, साक्षीभावसे रहना चाहिये । अन्य सब भूल जाने जैसा है। जो-जो संकल्प-विकल्प आकर खड़े हो उनका सन्मान न कर, उसमें समय न खोकर, उन्हें शत्रु मानकर, उनसे मनको मोड लें और सद्गुरुकी शरणमें, उनके बोधमें, स्मरणमें लीन होना उचित है। कालका भरोसा नहीं है, प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है। यह मनुष्यभव चाहे जैसी दशामें हो, तब भी वह दुर्लभ है, ऐसा समझकर समयमात्रका भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। भगवानके इन वचनोंपर बारंबार विचार कर शुद्ध आत्मस्वरूपकी भावनामें निरंतर रहनेका पुरुषार्थ करना चाहिये । मैं कुछ नहीं जानता, परंतु सत्पुरुषने जो जाना है, अनुभव किया है और हम पर परमकृपा कर उपदेश द्वारा बताया है, वह परम सत्य है। वही मेरे मानने योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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