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उपदेशामृ
स्वभावदशामें बीतता है उसे ही ज्ञानियोंने जीवन कहा है। शेष समय तो जीव मृत्युमें ही बिता रहा । इस गिनतीसे तो हमें, अपने जीवनका घात हो रहा है इसीका, खेद करना चाहिये ।
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यों जीव दृष्टि बदलकर देखें तो लौकिक वस्तुओं या संबंधियोंके वियोगकी अपेक्षा अनंत गुना खेद तो हमें अपने आत्माकी अधम दशा देखकर करना चाहिये । जिस आत्माके मूल स्वरूपका ज्ञानी पुरुषोंने ऐसा वर्णन किया है कि वह केवलज्ञान स्वरूप, केवल दर्शनस्वरूप, क्षायक सम्यक्त्वस्वरूप, अनंत सुखस्वरूप, अनंत वीर्यस्वरूप है । इतनी सारी ऋद्धिका स्वामी हमारा आत्मा है, फिर भी दो आँख हों तो देख सके, चित्त स्थिर हो तो जान सके, पुद्गल पदार्थ प्राप्त हो तो सुखका अनुभव कर सके ऐसा हीन वीर्यवाला, पराधीन, पुद्गलका ही आदर करनेवाला, कंगाल जैसा हो रहा है । वह मूल स्वरूपसे कितना पतित, कितनी अधम दशामें आ पड़ा है! इस पर विचार करें। यदि हम अपने आत्माकी दया नहीं करेंगे, उसके हितकी चिंता नहीं करेंगे तो हम विचारवान कैसे? अनादिकालसे जो भूल चली आ रही है वह भूल क्या है ? और यह भूल कैसे दूर हो ? इसका विचार मुमुक्षु जीव करते हैं ।
उस भूलको पहचानकर उसे दूर करनेके लिये यह मनुष्यभव मुख्य साधन है । सत्संग, समागम आदि सर्वोत्तम निमित्त हैं । यदि वह भूल इस मनुष्यभवमें भी दूर नहीं हुई तो यह भव व्यर्थ गया माना जायेगा। फिर अन्य ढोर, पशु या नरक आदिके भवमें ऐसी अनुकूलता कहाँसे मिलेगी ? स्वजन-मरण आदिके प्रसंगोंमें संसारका स्वरूप, जैसा है वैसा समझनेकी अनुकूलता है क्योंकि वहाँ मायाका आवरण कम होना संभव है । अतः सरल जीवात्मा अपने विचारमें उतरकर इस भवको सफल करने योग्य सद्विचार सद्गुरुकृपासे प्राप्त करे तो आत्मकल्याण दूर नहीं है ।
काल कठिन है, दुषम या कलियुग कहा गया है । फिर भी कर्मका तीव्र उदय एक समान होना संभव नहीं। जीव चाहे तो इस कालमें भी धर्मका अवकाश प्राप्त कर सकता है ऐसा भगवानने कहा है । किन्तु जीव जागृत होना चाहिये, आत्मकल्याणका लक्ष्य रखना चाहिये, उसके लिये पुरुषार्थका आरंभ करना चाहिये। समझनेसे ही छुटकारा है । 'जब जागेंगे आतमा तब लागेंगे रंग ।' यदि सम्यक्त्वरूपी रत्न प्राप्त हो जाय तो यह मनुष्य भव चिंतामणि रत्नतुल्य है, अन्यथा पशुतुल्य है ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने कहा है । अनादि कालके परिभ्रमणको दूर करनेका यह अवसर मिला है यह व्यर्थ न चला जाय इतना लक्ष्य अवश्य रखनेयोग्य है जी ।
कार्तिक वदी १, गुरु, सं. १९८८
इस जीवको संसारके काममें जो मधुरता और मोह है, वह बदलकर यदि इतना उत्साह और चिंता इस आत्माके कल्याणके हेतुभूत धर्ममें रहे तो मोक्ष बहुत दूर नहीं है। मात्र दृष्टिकी भूल है । उस दृष्टिको बदलनेकी आवश्यकता है जी । तथा जिसका परम माहात्म्य है ऐसे सद्गुरुके बोधके बिना दृष्टि परिवर्तन दुर्लभ है। जब तक संसारका महत्त्व माना जायेगा तब तक हृदयमें सद्गुरुका निवास नहीं हो सकता । अतः इस क्लेशरूप संसारसे छूटनेकी भावना होने पर जीव सद्गुरुकी कृपाका पात्र बनता है तथा वैसा बननेके लिये संतके चरणकमलकी सेवा सर्वोत्तम उपाय है ।
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