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________________ [१२] स्मरणांजलि +अंगूठे सौ तीरथ वसतां संतशिरोमणिरूपेजी; रणद्वीप सम दिपाव्यो आश्रम, आप अलिप्त स्वरूपेजी. समजी अत्यंत शमाया स्वामी कदीये नहि छलकायाजी, अबळा, बाळ, गोपाळ बधाने शिर छत्रनी छायाजी. १ समजे सर्वे मनमा अर्बु मुज पर प्रेम प्रभुनोजी; परमकृपाळु सर्वोपरी . छे हुँ तो सौथी नानोजी. परमप्रेममूर्ति प्रभुजीनी सहुं स्वप्ने न वियोगजी, काळ कराळ दयाळ नहीं जरी, जडने शो उपयोगजी?२ ऋतु पर्व सौ पाछां आवे यादी प्रभुनी आपेजी, प्रेममूर्तिनुं दर्शन क्यांथी? शोक सहु जे कापेजी. प्रभुना सन्मुख दर्शन विण तो, क्याथी उमळको आवेजी? स्मतिसरोवर निर्मळ जेनं तेने विरह सतावेजी.३ त्रिविध तापथी बळता जीवो वचनसुधारस पीताजी, संत समागम दर्शन पामी प्रारब्धे नहि बीताजी. सत्ययुग सम काळ गयो ओ सौने उरमां सालेजी, दूर रह्या पण दयादृष्टिथी प्रभु अमने निहाळेजी. ४ - श्री ब्रह्मचारीजी प्रशस्ति (शिखरिणी) *अहो! आत्मारामी, मुनिवर लघुराज प्रभुश्री, कृपाळुनी आज्ञा उर धरी करी व्यक्त शिवश्री; तमे उद्धार्या आ दुषम कळिकाळे जन बहु, कृपासिंधु वंदूं, स्वरूप-अनुभूति-स्थिति चहुं. १ कृपाळुनी आज्ञा मुज उर विषे निश्चळ रहो, गुरु ज्ञानीयोगे भवजळ तणो अंत झट हो; सदा सेवी ओना विमल वचनामृत ऋतने; सदानंदे मग्न भजुं हुं सहजात्मस्वरूपने. २ . (वसंततिलका) *श्री राजचंद्र गुरुवर्यतणा प्रतापे, अध्यात्मज्ञान प्रगटावी प्रभुश्री आपे; वर्षावी बोधतणी अमृतवृष्टि आ जे, थाओ मुमुक्षु जनने शिवसौख्य काजे. ३ जे भव्य आ जीवन ज्ञानीतणुं सुणीने, संभाळशे सहज-आत्मस्वरूप-श्रीने; संसार-सागर अपार तरी जशे ते, शांति समाधि सुख शाश्वत पामशे ते. ४ -श्री रावजीभाई देसाई ___ + (१) संतशिरोमणि ऐसे श्री लघुराजस्वामीके अंगूठेमें सब तीर्थ निवास करते हैं अर्थात् उनके चरणकमल जंगम तीर्थरूप हैं। स्वयं अलिप्त रहकर उन्होंने रणद्वीपकी तरह आश्रमकी शोभा बढाई है। वे समझकर समा गये, मगर कभी छलके नहीं। अबला, बाल, गोपाल सभीके लिये वे शिरछत्ररूप हैं। (२) उनकी प्रेमदृष्टि देखकर सभीको ऐसा ही लगता है कि प्रभु मुझ पर प्रेमभाव रखते हैं। उन्होंने परमकृपालुदेवको सर्वोपरि मानकर स्वयंको सबसे छोटा माननेकी लघुता धारण की है। ऐसे परम प्रेममूर्तिरूप प्रभुश्रीका में स्वप्नमें भी वियोग सहन नहीं कर सकता, मगर कराल (दुष्ट) कालको जरा भी दया नहीं आई और उन्हें पृथ्वी परसे उठा लिया। सच, जड़ ऐसे कालको दयाका भाव कैसे होगा? (३) ऋतुपर्व सब प्रभुकी यादी दिलाते हैं, प्रसंग प्रसंगपर उनकी कमी महसूस होती है, मगर अब सब शोक दूर करनेवाली प्रेममूर्तिका दर्शन कहाँसे होगा? प्रभुके प्रत्यक्ष दर्शनके बिना तो हुलास कैसे आयेगा? निर्मल स्मृतिवालेको विरह ज्यादा सताता है । (४) आपकी हयातिमें त्रिविध तापसे दग्ध जीव आपके वचनामृतको पीते थे और आपके समागम दर्शनके प्रभावसे दुःखरूप प्रारब्धसे भी नहीं डरते थे ऐसा सत्ययुग जैसा काल चला गया यह सबके दिलमें चुभता है परन्तु प्रभु दूर रहते हुए भी दयादृष्टिसे हमें देख रहे हैं, यह संतोषकी बात है। * अर्थक लिये देखिये पृष्ठ (८७-८८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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