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________________ ४६ उपदेशामृत यही सत्समागमका फल है; किन्तु यथायोग्य खेद अभी तक नहीं हो रहा है। जब यथार्थ खेद होगा और सर्व उपाधिके प्रति विषके समान बुद्धि होगी तब हरि निवृत्तिका अवकाश सहज ही देगा। जगतके जीव कुछ-न-कुछ प्राप्त करनेमें प्रयत्नशील है, पर आत्मार्थी जीव किंचित् भी ग्रहण करनेको-प्राप्त करनेको ही दुःखका मूल समझते हैं। अपना शाश्वत धन उपाधिके कारण आवरित हो गया है । जैसे भी हो सके वैसे उपाधिरहित होकर, असंग वृत्ति कर, एक सद्गुरुके प्रति अनन्य भक्तिभाव और आश्रयभाव उत्पन्न करें कि जिस आश्रयके बलसे सर्व उपाधिका विलय होगा या वह उपाधि अंतराय-आवरणभूत नहीं होगी। जिसकी दृष्टि स्वस्वरूप सन्मुख हुई है, उस आत्माको संसारमें बड़प्पनका भाव छोड़ देना चाहिये। जब तक असद् वासनाएँ हैं तब तक सत्की प्राप्ति दूर रहती है। अतः सोच-विचारकर असत्संगका त्याग, सत्की प्राप्ति और सत्-असत्का विवेक-ज्ञान बहुत सूक्ष्म दृष्टिसे करना चाहिये । पहले भी कई बार ऐसा जोग मिला, किन्तु सत् मिला नहीं, उसे सुना नहीं, उसकी श्रद्धा की नहीं; और वह मिलनेपर, उसे सुननेपर और उसकी यथार्थ प्रतीति होने पर तदनुसार प्रवृत्ति होनेसे मोक्ष हथेलीमें है, ऐसा परमगुरु कहते हैं । इस वाक्य पर विशेष विचार कीजियेगा। सहजात्मस्वरूप पुनश्च द्रष्टा-अरूपी। देहसे जीवको कर्मका भोग है उसका मैं द्रष्टा हूँ। मनसे कल्पना (उठती है) उसका द्रष्टा हूँ। ज्ञान-दर्शन-चारित्रका द्रष्टा हूँ, उपयोगमय हूँ। चैतन्यमय हूँ, निर्विकल्प हूँ। समभाव ही भुवन है। सहजात्मस्वरूपका स्मरण। ६७ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, भाद्रपद सुदी ३, १९७८ सत्संग-सत्समागम अवश्य कर्तव्य है। फिर भी अंतरायके कारण विशेष पुरुषार्थ कर, प्रमादको छोड़कर, निवृत्तियोगमें अवकाश ग्रहण कर, जो भाविक जीव हों उनके साथ उनके समागममें बड़ी पुस्तक (श्रीमद् राजचंद्र ग्रंथ) का योग हो तो वाचन-चिंतन कीजियेगा। श्रीमद् राजचंद्र कृपालुदेव देवाधिदेवके वचनामृतोंसे भरे हुए पत्ररूपी अमृतका पान कर, उन पर विचार-चिंतन करनेमें समय व्यतीत कीजियेगा। यद्यपि उपाधि, व्यवसायके निमित्तसे अवकाश न मिलता हो तथापि ऐसा अवकाशका योग प्राप्तकर घंटे-दो घंटे, दिनमें या रातमें सत्समागम करें। यदि ऐसा योग न मिलें तो स्वयं ही एकांतमें घंटे-दो घंटे निवृत्ति लेकर वाचन-चिंतन करें। कालका भरोसा नहीं है। संसार स्वप्नके समान है। बुरे अध्यवसाय परिणामके निमित्तसे जीव प्रेरित होकर आर्तध्यान, संकल्प-विकल्पमें पड़कर, मनमें रति लाकर बंधन करता है जी। उस बुरे निमित्तको मनसे बदलकर स्मरणमें तथा वाचन-चिंतनमें मनको लगायेंगे जी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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