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पत्रावलि-१ केशव हरि, मारुं शुं थाशे ? घाण वळ्यो शुं गढ़ घेराशे?
लाज तमारी जाशे, भूधर भाळजो रे! मारी०४
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सनावद,सं.१९७६ इस जीवको अनंतकाल परिभ्रमण करते हुए अनेक बार मनुष्यभव प्राप्त हुए, फिर भी स्वच्छंद और प्रमाद इन दो शत्रुओंका नाश करनेके लिये एक प्रत्यक्ष प्रगट पुरुषकी आज्ञाका पालन जीव न करे तो वह सर्व बंधनसे मुक्त नहीं हो सकता।
इस कलिकालमें सत्संग, सत्पुरुषका मिलना बहुत दुर्लभ है। इस जीवात्माको वैसा जोग मिलने पर, श्रद्धा-रुचि-प्रतीति आनेपर यदि जीव पुरुषार्थ (समभाव) न करे तो जीवका परिभ्रमण मिटना दुर्लभ हो जायेगा जी।
सभी दर्शन धर्म, धर्मकी पुकार कर रहे हैं, पर आत्मसुखको उपादेय मानकर जो जीव पुद्गलसुखसे उपेक्षित हैं, वे राजमार्गके योग्य हैं। किंतु जो पुद्गलसुखके अभिलाषी, अभिनिवेशी, आलसी, असुर, दुराचारी, क्लेशित, कुसंस्कारी, कदाग्रही हैं, उन्हें राजमार्गसे दूर समझना चाहिये।
जिसके हृदयमें गुरु निवास करते हैं वह धन्य है जी। इस संसारमें जो एक कार्य करनेका है वह बाकी रह जाता है। और संसार-व्यवहार जो स्वप्न समान माया है, उसमें दौड़भाग कर यह जीव 'मेरा मेरा' कर मिथ्याग्रह कर रहा है जी। मुमुक्षु जीवको इस पर विचार अवश्य करना चाहिये और जागृत रहनेका पुरुषार्थ करना चाहिये जी। एकमात्र आत्माकी चिंतामें ही शेष भव बिताये तो अनंत भव टल सकते हैं जी। संसारका बोलना, चलना या प्रवर्तन कुछ भी देखना नहीं है जी। सारा जगत कर्माधीन प्रवृत्ति करता है जी। उसमें दृष्टि नहीं डालकर, द्रष्टा बनकर मनन, ध्यानसे वृत्तिको मनमें लाकर समभावको साध्यकर, समतोल रखकर रहना उसका नाम समाधि है जी। इस समाधिको प्राप्त करनेकी परम कृपालुदेवकी आज्ञा है, इसे भूलना नहीं चाहिये। इस बातको लक्ष्यमें रखकर हमें हमारा काम करना चाहिये। विभावके निमित्तकी ओर न देखकर मात्र अपने एक शुद्ध आत्मस्वरूपमें ही दृष्टि रखकर रहनेका कृपालुदेवका अनुरोध है जी। इस निशानको न चूकें । उपयोग ही आत्मा है, वही धर्म है, उसमें दृष्टि प्रेरित करें। अधिक क्या लिखू ? कुछ समझमें नहीं आता। इस जगतका दूसरा नाम दुनिया अर्थात् दो न्याय है; अधिकांशतः यह पागल है और अल्पांशमें ही समझदार है, यों दो न्याय हैं जी। उसमें भी अंगुलिके पोरे पर गिने जा सकें ऐसे विरले ही जीव समझदार हैं जी। जो जीवात्मा अपने ही दोष देखकर दूसरेकी ओर दृष्टि न करते हुए अपना काम कर लेंगे, वैसे ही भावमें विचार करते हुए अधिक समय व्यतीत करेंगे, उन्हें आत्मभाव होगा जी । अन्य देखनेसे अन्य होता है जी।
“ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहां विचार;
ए भावे शुभ भावना, ते ऊतरे भव पार." १“गई वस्तु शोचे नहीं, आगम वांछा नाही;
वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जगमांही." १. अर्थ-जो हो गया उसकी चिंता नहीं करता और भविष्यकी इच्छा नहीं करता, केवल वर्तमानका ही विचार करता है उसे संसारमें ज्ञानी कहते हैं।
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