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________________ पत्रावलि - १ हां रे ! घणा शूरा तो जगतमां गणाये । हां रे! ते तो काळना चक्रमां तणाये । शूरा पूरा तो संत जणाये त्रिगुणरूपी शब्दबाण दुर्जन दुःख दई तन परब्रह्मशुं न तू सर्व जातां ते शोक नव घणा लाभे ते नव हरखाये । थाये । संतचित्त प्रभुथी संत भक्तिने मोरचे मळ्या । हां रे ! शब्द गोळाथी जरा नव चळ्या । हां रे ! हां रे ! कायर हता ते कंपवा हां रे ! हां रे ! हां रे ! त्यारे हां रे ! हां रे ! हां रे ! हां रे ! Jain Education International रे ! दिलडुं० १ छूटे | ** २० लूटे । रे । दिलडुं० २ ना पलाये रे ! दिलडुं०३ ए तो ब्रह्मदशामां भळ्या रे ! दिलडुं०४ लाग्या । हां रे ! काचा मनवाला पाछा भाग्या । आश । हां रे ! शूरा संतो तो रहे छे जाग्या रे ! दिलडुं०५ हां रे ! ए तो कोईनी नव राखे हां रे ! दुर्जनथी एकांते रहे हां रे ! बापालाल प्रभुनो छे दास रे ! दिलडुं०६ वास । जूनागढ़, अषाढ़ वदी ८, शनि, १९७२ हे प्रभु! सहज हल्का-फूल होनेके बाद उन सद्गुरुके प्रतापसे अब कोई कुछ चूँ या चीं नहीं करता। उल्टे, सामने भावपूर्वक आते हैं जी । यद्यपि ज्ञानीको तो सर्व भूमिकामें समभाव रहता है, परंतु आत्मार्थीको तो ऐसी निवृत्तिवाली भूमिमें विक्षेप या विकल्प टल जाते हैं । कुछ शब्द सुनने के निमित्तकारण नहीं मिलनेसे एकान्तमें आनन्द है, ज्ञानीके प्रतापसे - गुरुकी शरणसे शान्ति रहती है । 1 For Private & Personal Use Only १३ ** प्राप्त अंतरके अनुभवरूप परिणामोंको प्रगट नहीं करेगी । - जगतमें अनेक शूरवीर गिने जानेवाले लोग कालके चक्रमें बह जाते हैं, परंतु सच्चे शूरवीर तो संत ही हैं जिन्होंने कालको वशमें कर लिया है ||१|| - कोई योगके, कोई भोगके और कोई कषायोंकी उत्तेजनाके शब्दबाण छोड़ेंगे। कोई दुर्जन शरीरको छेद-भेदकर अनेक प्रकारके कष्ट देंगे, फिर भी शुद्ध चैतन्यस्वरूप परब्रह्मकी लगनीमें कोई बाधा नहीं आयेगी ॥ २ ॥ सांसारिक सब कुछ लुट जानेपर भी शोक नहीं होता, भारी लाभ मिलनेपर जहाँ हर्षका कारण नहीं, ऐसे संतोंका चित्त तो प्रभुमें ही लगा रहता है, वहाँसे पलायमान नहीं होता || ३ || हमने देखा तो संत भक्तिके मोरचेपर डटे हुए थे। उन्हें किसीके मान-अपमानके शब्दोंकी जरा भी चिंता नहीं । अरे! वे तो ब्रह्मदशामें लीन हो गये हैं, ऐसी उनकी स्थिति है। ( और वही हमारे अंतरमें है किन्तु उसे प्रगट नहीं करेंगे ) ॥४॥ जो कायर ( संसारके प्रलोभनोंमें लिप्त ) थे उनको साहस नहीं हुआ कि इस ओर आगे बढ़ें। संतोंकी प्रबल दशा देखकर ढीले मनवाले वापस भाग गये, परंतु शूरवीर संत जो जाग्रत थे वे मोरचेपर डटे रहे और जीत गये ( आत्मकल्याण किया ) ||५|| निस्पृही पुरुष किसीकी आशा नहीं रखते । दुर्जनसे दूर, एकान्तमें निवास करते हैं । कवि बापालाल कहते हैं कि हम तो ऐसे संत और प्रभुके दास हैं । (उनकी दशाको हम जानते हैं, हमें वैसा अनुभव है पर कहेंगे नहीं, अंतरकी वृत्तिको नहीं खोलेंगे) ॥६॥ www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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