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________________ आचार्य मल्लवादी का नयचक्र ૨૯૫ मल्लवादी का समय आचार्य मल्लवादी के समय के बारे में एक गाथा के अलावा अन्य कोई सामग्री मिलती नहीं । किन्तु नयचक्र के अंतर का अध्ययन उस सामग्री का काम दे सकता है । नयचक्र की उत्तरावधि तो निश्चित हो ही सकती है और पूर्वावधि भी । एक ओर दिग्नाग है जिनका उल्लेख नयचक्र में है और दूसरी ओर कुमारिल और धर्मकीर्ति के उल्लेखों का अभाव है जो नयचक्र मूल तो क्या, किन्तु उसकी सिंहगणिकृत वृत्ति से भी सिद्ध है । आचार्य समन्तभद्र का समय सुनिश्चित नहीं, अत एव उनके उल्लेखों का दोनों में अभाव यहाँ विशेष साधक नहीं । आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख दोनों में है । वह भी नयचक्र के समय-निधारिण में उपयोगी है। आचार्य दिग्नाग का समय विद्वानों ने ई. ३४५-४२५ के आसपास माना है। अर्थात् विक्रम सं. ४०२-४८२ है । आचार्य सिंहगणि जो नयचक्र के टीकाकार हैं अपोहवाद के समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए 'अद्यतनबौद्ध'२४ विशेषण का प्रयोग करते हैं । उससे सूचित होता है कि दिग्नाग जैसे बौद्ध विद्वान् सिर्फ मल्लवादी के ही नहीं, किन्तु सिंहगणि के भी समकालीन हैं । यहाँ दिग्नागोत्तरकालीन बौद्ध विद्वान् तो विवक्षित हो ही नहीं सकते; क्यों कि किसी दिग्नागोत्तरकालीन बौद्ध का मत मूल या टीका में नहीं है । अद्यतनबौद्ध के लिए सिंहगणि ने 'विद्वन् मन्य' ऐसा विशेषण भी दिया है । उससे यह सूचित भी होता है कि 'आजकाल के ये नये बौद्ध अपने को विद्वान् तो समझते हैं, किन्तु हैं नहीं' । समग्र रूप से-'विद्वन्मन्याद्यतन बौद्ध' शब्द से यह अर्थ भी निकल सकता है कि मल्लवादी और दिग्नाग का समकालीनत्व तो है ही, साथ ही मल्लवादी उन नये बौद्धों को सिंहगणि के अनुसाार 'छोकरे' समझते हैं । अर्थात् समकालीन होते हुए भी मल्लवादी वृद्ध हैं और दिग्नाग युवा । इस चर्चा के प्रकाश में परंपराप्राप्त गाथा का विचार करना जरूरी है । विजयसिंहसूरिप्रबंध२५ में एक गाथा में लिखा है कि वीर सं. ८८४ में मल्लवादी ने बौद्धों को हराया । अर्थात् विक्रम ४१४ में यह घटना घटी । इससे इतना तो अनुमान हो सकता है कि विक्रम ४१४ में मल्लवादी विद्यमान थे । आचार्य दिग्नाग के समकालीन मल्लवादी थे यह तो हम पहले कह चुके ही हैं । अत एव दिग्नाग के समय विक्रम ४०२-४८२ के साथ जैन परंपरा द्वारा संमत मल्लवादी के समय का कोई विरोध नहीं है और इस दृष्टि से 'मल्लवादी वृद्ध और दिग्नाग युवा' इस कल्पना में भी विरोध की संभावना नहीं । आचार्य सिद्धसेन की उत्तराविधि विक्रम पाँचवी शताब्दी मानी जाती है । मल्लवादी ने आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया है । अत एव इन दोनों आचार्यों को भी समकालीन माना जाँय तब भी विसंगति नहीं । इस प्रकार आचार्य दिग्नाग, सिद्धसेन और मल्लवादी ये तीनों आचार्य समकालीन माने जाय तो उनके अद्यावधि स्थापित समय में कोई विरोध नहीं आता । वस्तुतः नयचक्र के उल्लेखों के प्रकाश में इन आचार्यों के समय की पुनर्विचारणा अपेक्षित है; किन्तु अभी इतने से सन्तोष किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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