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ŚRUTA-SARITĀ
(९) जातिवाद के विरुद्ध विशेषवाद और विशेषवाद के विरुद्ध जातिवाद का उत्थान है; अत एव वस्तु सामान्यैकान्त या विशेषैकान्तरूप है ऐसा नहीं कहा जा सकता । वह अवक्तव्य है । इसके समर्थन में निम्न आगम वाक्य उद्धृत किया है-"इमाणं रयणप्पमा पुवीढ़ आता नो आता ? गोयमा ! अप्पणो आदिढे आता, परस्स आदिढे वो आता तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं ॥"
(१०) इस अवक्तव्यवाद के विपक्ष में समभिरूढ नय का आश्रय लेकर बौद्धदृष्टि से कहा गया कि द्रव्योत्पत्ति गुणरूप है अन्य कुछ नहीं । मिलिन्द प्रश्न की परिभाषा में कहा जाय तो स्वतंत्र रथ कुछ नहीं रथांगों का ही अस्तित्व है । रथांग ही रथ है अर्थात् द्रव्य जैसी कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं गुण ही गुण हैं । इसी वस्तु का समर्थन सेना और बन के दृष्टान्तों द्वारा भी किया गया है ।
इस समभिरूढ की चर्चा में कहा गया है कि एक-एक नय के शत-शत भेद होते हैं, तदनुसार समभिरूढ के भी सौ भेद हुए । उनमें से यह गुण समभिरूढ एक है । गुणसमभिरूढ के भी विधि आदि बारह भेद हैं । उनमें से यह नियमविधि नामक गुण समभिरूढ है ।
इस नय का निर्गम आगम के-"कईविहे णं भन्ते ! भावपरमाणु पन्नते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते-वण्णवन्ते, गंधवंते, फासवंते रसवंते" इस वाक्य से है ।
(११) समभिरूढ का मन्तव्य गुणोत्पत्ति से था । तब उसके विरुद्ध एवंभूत का उत्थान हुआ । उसका कहना है कि उत्पत्ति ही विनाश है। क्योंकि वस्तुमात्र क्षणिक हैं । यहाँ बौद्धसंमत निर्हेतुक विनाशवाद के आश्रय से सर्वरूपादि वस्तु की क्षणिकता सिद्ध की गई है और प्रदीपशिखा के दृष्टान्त से वस्तु की क्षणिकता का समर्थन किया गया है।
(१२) एवंभूत नय ने जब यह कहा कि जाति-उत्पत्ति ही विनाश है, तब उसके विरुद्ध कहा गया कि-"जातिरेव हि भावानामनाशे हेतुरिष्यते" अर्थात् स्थितिवाद का उत्थान क्षणिकवाद के विरुद्ध इस अर में है । अत एव कहा गया कि-"सर्वेप्यक्षणिका भावाः क्षणिकानां कुतः क्रिया ?" यहाँ आचार्य ने इस नय के द्वारा यह प्रतिपादित कराया है कि पूर्व नय के वक्ता ने ऋषियों के वाक्यों की धारणा ठीक नहीं की; अत एव जहाँ अनाश की बात थी वहाँ उसने नाश समझा और अक्षणिक को क्षणिक समझा । इस प्रकार विनाश के विरुद्ध जब स्थितिवाद है और स्थितिवाद के विरुद्ध जब क्षणिकवाद है, तब उत्पत्ति और स्थिति न कह कर शून्यवाद का ही आश्रय क्यों न लिया जाय यह आचार्य नागार्जुन के पक्ष का उत्थान है । इस शून्यवाद के विरुद्ध विज्ञानवादी बौद्धों ने अपना पक्ष रखा और विज्ञानवाद की स्थापना की । विज्ञानवाद का खण्डन फिर शून्यवाद की दलीलों से किया गया । और स्याद्वाद के आश्रय से वस्तु को अस्ति और नास्तिरूप सिद्ध करके शन्यवाद के विरुद्ध पुरुषादि वादों की स्थापना करके उसका निरास किया गया ।
और इस अर के अन्त में कहा गया कि वादों का यह चक्र चलता ही रहता है; क्यों कि पुरुषादि वादों का भी निरास पूर्वोक्त क्रम से होगा ही ।
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