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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
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में परमत ही नयों के रूप में रखे गए हैं और अन्य में स्वमत ही नयों के रूप में रखे गए हैं । स्वमत को नय और परमत को नयाभास कहा गया है । जब कि नयचक्र में परमत ही नय और नयाभास कैसे बनते हैं यह दिखाना इष्ट है । प्रक्रिया का यह भेद महत्त्वपूर्ण है। और वह महावीर और नयचक्रोत्तर काल के बीच की एक विशेष विचारधारा की ओर संकेत करता
वस्तु को अनेक दृष्टि से देखना एक बात है अर्थात् एक ही व्यक्ति विभिन्न दृष्टि से एक ही वस्तु को देखता है-यह एक बात है और अनेक व्यक्तिओं ने जो अनेक दृष्टि से वस्तुदर्शन किया है उनकी उन सभी दृष्टिओं को स्वीकार करके अपना दर्शन पुष्ट करना यह दूसरी बात है । नयचक्र की विचारधारा इस दूसरी बात का समर्थन करती है । और नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थ प्रथम बात का समर्थन करते हैं । दूसरी बात में वह खतरा है कि दशन दूसरों का है, जैन दर्शन मात्र उनको स्वीकार कर लेता है । जैन दार्शनिक की अपनी सूझ, अपना निजी दर्शन कुछ भी नहीं । वह केवल दूसरों का अनुसरण करता है, स्वयं दर्शन का विधाता नहीं बनता । यह एक दार्शनिक की कमजोरी समझी जायगी कि उसका अपना कोई दर्शन नहीं । किन्तु प्रथम बात में ऐसा नहीं होता । दार्शनिक का अपना दर्शन है । उसकी अपनी दृष्टि है । अत एव उक्त खतरे से बचने के लिए नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थों ने प्रथम बात को ही प्रश्रय दिया हो तो आश्चर्य नहीं । और जैन दर्शन की सर्वनयमयता-सर्वमिथ्यादर्शनसमूहता का सिद्धान्त गौण हो गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उत्तरकाल में नय-विवेचन यह दृष्टि-विवेचन है, परमतविवेचन नहीं । जब जैन दार्शनिकों ने यह नया मार्ग अपनाया तब प्राचीन पद्धति से लिखे गए प्रकरणग्रन्थ गौण हो जांय यह स्वाभाविक है। यही कारण है कि नयचक्र पठन-पाठन से वंचित हो कर क्रमश: कालकवलित हो गया-यह कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा । नयचक्र के पठनपाठन में से लुप्त होने का एक दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि नयचक्र की युक्तिओं का उपयोग करके अन्य सारात्मक सरल ग्रन्थ बन गए, तब भाव और भाषा की दृष्टि से क्लिष्ट
और विस्तृत नयचक्र की उपेक्षा होना स्वाभाविक है । नयचक्र की उपेक्षा का यह भी कारण हो सकता है कि नयचक्रोत्तरकालीन कुमारिल और धर्मकीर्ति जैसे प्रचण्ड दार्शनिकों के कारण भारतीय दर्शनों का जो विकास हुआ उससे नयचक्र वंचित था । नयचक्र की इन दार्शनिकों के बाद कोई टीका भी नहीं लिखी गई जिससे वह नये विकास को आत्मसात् कर लेता । नयचक्र का परिचय
नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थों ने नयचक्र की परिभाषाओं को भी छोड़ दिया हैं । सिद्धसेन दिवाकर ने प्रसिद्ध सात नय को ही दो मूल नय में समाविष्ट किया हैं । किन्तु मल्लवादी ने, क्यों कि नयविचार को एक चक्र का रूप दिया, अत एव चक्र की कल्पना के अनुकूल नयों का वर्गीकरण किया है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । आचार्य मल्लवादी की प्रतिभा की प्रतीति भी इसी चक्ररचना से ही विद्वानों को हो जाती है।
चक्र के बारह आरे होते हैं । मल्लवादी ने सात नय के स्थान में बारह नयों की कल्पना की है, अत एव नयचक्र का दूसरा नाम द्वादशारनयचक्र भी है । वे ये हैंJain Education International For Private & Personal Use Only
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