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ŚRUTA-SARITĀ
ही यदि अस्थिर व्यक्ति के हाथ में हों तो दुरुपयोग संभव है । यह स्थूलभद्र की कथा से सूचित होता ही है। उन्हों ने अपनी विद्यासिद्धि का अनावश्यक प्रदर्शन कर दिया और वे अपने संपूर्ण दृष्टिवाद के पाठन के अधिकार से वंचित कर दिए गए । जैनदर्शन को सर्वनयमय कहा गया है । यह मान्यता निराधार नहीं । दृष्टिवाद के नयविवरण में संभव है कि आजीवक आदि मतों की सामग्री का वर्णन हो और उन मतों का नयदृष्टि से समर्थन भी हो । उन मतों के ऐसे मन्तव्य जिनको जैनदर्शन में समाविष्ट करना हो, उनकी युक्तिसिद्धता भी दर्शित की गई हो । यह सब कुशाग्र बुद्धि पुरुष के लिए ज्ञान-सामग्री का कारण हो सकता है और जड़बुद्धि के लिए जैनदर्शन में अनास्थाका भी कारण हो सकता है । यदि नयचक्र उन मतों का संग्राहक हो तो जो आपत्ति दृष्टिवाद के अध्ययन में है वही नयचक्र के भी अध्ययन में उठी सकती है । श्रुतदेवता की आपत्ति-दर्शक कथा का मूल इसमें संभव है । अतएव नये नयचक्र की रचना भी आवश्यक हो जाती है जिसमें कुछ परिमार्जन किया गया हो । आचार्य मल्लवादी ने अपने नयचक्र में ऐसा परिमार्जन करने का प्रयत्न किया हो यह संभव है। किन्तु उसकी जो दुर्गति हुई और प्रचार में से वह भी प्रायः लुप्त-सा हो गया उसका कारण खोजा जाय तो पता लगेगा कि परिमार्जन का प्रयत्न होने पर भी जैनदर्शन की सर्वनयमयता का सिद्धान्त उसके भी उच्छेद में कारण हुआ है। नयचक्र की विशेषता
नयचक्र और अन्य ग्रन्थों की तुलना की जाय तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट होती है कि जब नयचक्र के बाद के ग्रन्थ नयों के अर्थात् जैनेतर दर्शनों के मत का खण्डन ही करते हैं, तब नयचक्र में एक तटस्थ न्यायाधीश की तरह नयों के गुण और दोष दोनों की समीक्षा की गई है।
नयों के विवेचन की प्रक्रिया का भेद भी नयचक्र और अन्य ग्रन्थों में स्पष्ट है।६ | नयचक्र में वस्तुतः दूसरे जैनेतर मतों को ही नय के रूप में वर्णित किया गया है और उन मतों के उत्तर पक्ष जो कि स्वयं भी एक जैनेतर पक्ष ही होते हैं-उनके द्वारा भी पूर्वपक्ष का मात्र खण्डन ही नहीं; किन्तु पूर्व पक्ष में जो गुण है उनके स्वीकार की ओर निर्देश भी किया गया है । इस प्रकार उत्तरोत्तर जैनेतर मतों को ही नय मान कर समग्र ग्रन्थ की रचना हुई है । सारांश यह है कि नय यह कोई स्वतः जैन मन्तव्य नहीं, किन्तु जैनेतर मन्तव्य जो लोक में प्रचलित थे उन्हीं को नय मान कर उनका संग्रह विविध नयों के रूप में किया गया है और किस प्रकार जैन दर्शन सर्वनयमय है यह सिद्ध किया गया है । अथवा मिथ्यामतों का समूह हो कर भी जैन मत किस प्रकार सम्यक् है और मिथ्यामतों के समूह का अनेकांतवाद में किस प्रकार सामञ्जस्य होता है यह दिखाना नयचक्र का उद्देश्य है। किन्तु नयचक्र के बाद के ग्रन्थ में नयवाद की प्रक्रिया बदल जाती है । निश्चित जैन मन्तव्य की भित्ति पर ही अनेकान्तवाद के प्रासाद की रचना होती है । जैन संमत वस्तु के स्वरूप के विषय में अपेक्षाभेद से किस प्रकार विरोधी मन्तव्य समन्वित होते हैं यह दिखाना नयविवेचन का उद्देश्य हो जाता है । उसमें प्रासंगिक रूप से नयाभास के रूप में जैनेतर दर्शनों की चर्चा है । दोनों विवेचनों की प्रक्रिया का भेद यही है कि नयचक्र For Private & Personal Use Only
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