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________________ 284 नाम जिनानन्द था जो संसारपक्ष में उनके मातुल होते थे । भृगुकच्छ में गुरु का पराभव बुद्धानन्द नामक बौद्ध विद्वान् ने किया था; अत एव वे वलभी आगए । जब 'मल्लवादी' को यह पता लगा कि उनके गुरु का वाद में पराजय हुआ है, तब उन्होंने स्वयं भृगुकच्छ जा कर वाद किया और बुद्धानन्द को पराजित किया । ŚRUTA-SARITĀ इस कथा में संभवत: सभी नाम कल्पित हैं । वस्तुतः आचार्य मल्लवादी का मूल नयचक्र जिस प्रकार कालग्रस्त हो गया उसी प्रकार उनके जीवन की सामग्री भी कालग्रस्त हो गई है । बुद्धानन्द और जिनानन्द ये नाम समान हैं और सिर्फ आराध्यदेवता के अनुसार कल्पित किए गए हों ऐसा संभव है । मल्लवादी का पूर्वावस्था का नाम 'मल्ल' था— यह भी कल्पना ही लगता है । वस्तुतः इन आचार्य का नाम कुछ और ही होगा और 'मल्लवादी' यह उपनाम ही होगा । जो हो, परंपरा में उन आचार्य के विषय में जो एक गाथा चली आती थी उसी गाथा को लेकर उनके जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया हो ऐसा संभव है। नयचक्र की रचना के विषय में जो पौराणिक कथा दी गई है उस से भी इस कल्पना का समर्थन होता है । पौराणिक कथा एसी है— पंचम पूर्व ज्ञानप्रवाद में से नयचक्र ग्रन्थ का उद्धार पूर्वर्षिओंने क्रिया था उसके बारह आरे थे । उस नयचक्र के पढ़ने पर श्रुतदेवता कुपित होती थी, अत एव आचार्य जिनानन्दने जब कहीं बाहर जा रहे थे, मल्लवादी से कहा कि उस नयचक्र को पढ़ना नहीं । क्योंकि निषेध किया गया, मल्लवादी की जिज्ञासा तीव्र हो गई । और उन्होंने उस पुस्तक को खोल कर पढ़ा तो प्रथम 'विधिनियमभंग' इत्यादि गाथा पढ़ी। उस पर विचार कर ही रहे थे, उतने में श्रुतदेवताने उस पुस्तक को उनसे छीन लिया । आचार्य मल्लवादी दुःखित हुए, किन्तु उपाय था नहीं । अत एव श्रुतदेवता की आराधना के लिए गिरिखण्ड पर्वत की गुफा में गए और तपस्या शुरू की । श्रुतदेवता ने उनकी धारणाशक्ति की परीक्षा लेने के लिए पूछा 'मिष्ट क्या है ।' मल्लवादी ने उत्तर दिया 'वाल' । पुनः छ मास के बाद श्रुतदेवी ने पूछा 'किसके साथ ?' मुनि ने उत्तर दिया 'गुड़ और घी के साथ ।' आचार्य की इस स्मरणशक्ति से प्रसन्न हो कर श्रुतदेवता ने वर माँग ने को कहा । आचार्य ने कहा कि नयचक्र वापस दे दे । तब श्रुतदेवी ने उत्तर दिया कि उस ग्रन्थ को प्रकट करने से द्वेषी लोग उपद्रव करते हैं, अत एव पर देती हूँ कि तुम विधिनियमभंग इत्यादि तुम्हें ज्ञात एक गाथा के आधार पर ही उसके संपूर्ण अर्थ का ज्ञान कर सकोगे । ऐसा कह कर देवी चली गई । इसके बाद आचार्य ने नयचक्र ग्रन्थ की दश हजार श्लोकप्रमाण रचना की । नयचक्र के उच्छेद की परंपरा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में समान रूप से प्रचलित है । आचार्य मल्लवादी की कथा में जिस प्रकार नयचक्र के उच्छेद को वर्णित किया गया है यह तो हमने निर्दिष्ट कर ही दिया है । श्रीयुत प्रेमीजी ने माइल्ल धवल के नयचक्र की एक गाथा अपने लेख में उद्धृत की है उससे पता चलता है कि दिगम्बर परंपरा में भी नयचक्र के उच्छेद की कथा है । जिस प्रकार श्वेताम्बर परंपरा में मल्लवादी नयचक्र का उद्धार किया यह मान्यता रूढ़ है उसी प्रकार मुनि देबसेन ने भी नयचक्र का उद्धार किया है ऐसी मान्यता माइल्ल धवल के कथन से फलित होती है । इससे यह कहा जा सकता है कि यह लुप्त नयचक्र श्वेताम्बर दिगम्बर को समानरूप से मान्य होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001940
Book TitleSruta Sarita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageEnglish, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size18 MB
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