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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
प्राचीन दो नयों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में घटाने का कार्य आवश्यक और अनिवार्य हो जाता है । आचार्य सिद्धसेनने प्रधान दर्शनों का समन्वय कर उस प्रक्रिया का प्रारंभ भी कर दिया है और कह दिया है कि सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिक नय को प्रधान मान कर, सौगतदर्शन पर्यायार्थिक को प्रधान मान कर और वैशेषिक दर्शन उक्त दोनों नयों को विषयभेद से प्रधान मान कर प्रवृत्त है । किन्तु प्रधान - अप्रधान सभी वादों को नयवाद में यथास्थान बिठा कर सर्वदर्शनसमूहरूप अनेकान्तवाद है इसका प्रदर्शन बाकी ही था । इस कार्य को नयचक्र के द्वारा पूर्ण किया गया है । अत एव अनेकान्तवाद वस्तुतः सर्वदर्शनसंग्रहरूप है इस तथ्य सिद्ध करने का श्रेय यदि किसी को है तो वह नयचक्र को ही है, अन्य को नहीं ।
मैंने अन्यत्र सिद्ध किया है कि भगवान् महावीरने अपने समय के दार्शनिक मन्तव्यों का सामञ्जस्य स्थापित करके अनेकान्तवाद की स्थापना की है" । किन्तु भगवान् महावीर के बाद तो भारतीय दर्शन में तात्त्विकी मन्तव्यों की बाढ़ सी आई है । सामान्यरूप से कह देना कि सभी नयों का - मन्तव्यों का मतवादों का समूह अनेकान्तवाद है यह एक बात है और उन मन्तव्यों को विशेषरूप से विचारपूर्वक अनेकान्तवाद में यथास्थान स्थापित करना यह दूसरी बात है। प्रथम बात तो अनेक आचार्यों ने कही है; किन्तु एक-एक मन्तव्य का विचार करके उसे नयान्तर्गत करने की व्यवस्था करना यह उतना सरल नहीं ।
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नयचक्रकालीन भारतीय दार्शनिक मन्तव्यों की पृष्ठभूमिका विचार करना, समग्र तत्त्वज्ञान के विकास में उस उस मन्तव्य का उपयुक्त स्थान निश्चित करना, नये नये मन्तव्यों के उत्थान की अनिवार्यता के कारणों की खोज करना, मन्तव्यों के पारस्परिक विरोध और बलाबल का विचार करना - यह सब कार्य उन मन्तव्यों के समन्वय करनेवाले के लिए अनिवार्य हो जाते हैं । अन्यथा समन्वय की कोई भूमिका ही नहीं बन सकती । नयचक्र में आचार्य मल्लवादीने यह सब अनिवार्य कार्य करके अपने अनुपम दार्शनिक पाण्डित्य का तो परिचय दिया ही है और साथ में भारतीय तत्त्वचिन्तन के इतिहास की अपूर्व सामग्री का भंडार भी आगामी पीढ़ी के लिए छोड़ने का श्रेय भी लिया है । इस दृष्टि से देखा जाय तो भारतीय समग्र दार्शनिक वाड्मय में नयचक्र का स्थान महत्त्वपूर्ण मानना होगा ।
नयचक्र की रचना की कथा
भारतीय साहित्य में सूत्रयुग के बाद भाष्य का युग है। सूत्रों का युग जब समाप्त हुआ तब सूत्रों के भाष्य लिखे जाने लगे । पातञ्जलमहाभाष्य, न्यायभाष्य, शोबरभाष्य, प्रशस्तपादभाष्य, अभिधर्मकोषभाष्य, योगसूत्र का व्यासभाष्य, तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, शांकरभाष्य आदि । प्रथम भाष्यकार कौन है यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है । इस दीर्घकालीन भाष्ययुग की रचना नयचक्र है ।
परम्परा के अनुसार नयचक्र के कर्ता आचार्य मल्लवादी सौराष्ट्र के वलभीपुर के निवासी थे । उनकी माता का नाम दुर्लभदेवी था । उनका गृहस्थ अवस्था का नाम 'मल्लु' था, किन्तु वाद में कुशलता प्राप्त करने के कारण मल्लवादी रूप से विख्यात हुए । उनके दीक्षा - गुरु का
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