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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
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के उपदेश से करते हैं । इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उनके समक्ष पार्श्वनाथपरंपरा का श्रुत किसी न किसी रूप में था । विद्वानों की कल्पना है कि दृष्टिवाद में जो पूर्वगत के नाम से उल्लिखित श्रुत है वही पार्श्वनाथपरंपरा का श्रुत होना चाहिए । पार्श्वनाथपरंपरा से प्राप्त श्रुत को भगवान् महावीर ने विकसित किया वह आज जैनश्रुत या जैनागम के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस प्रकार वैदिक परंपरा में वेद के आधार पर बाद में नाना दर्शनों के विकास होने पर सूत्रात्मक दार्शनिक साहित्य की सृष्टि हुई और बौद्ध परंपरा में अभिधर्म तथा महायाः दर्शन का विकास होकर विविध दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की रचना हुई, उसी प्रकार जैन साहित्य में भी दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की सृष्टि हुई है ।
वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों परंपरा के साहित्य का विकास घात-प्रत्याघात और . आदान-प्रदान के आधार पर हुआ है । उपनिषद् युग में भारतीय दार्शनिक चिन्तनपरंपरा का प्रस्फुटीकरण हुआ जान पडता है और उसके बाद तो दार्शनिक व्यवस्था का युग प्रारंभ हो जाता है । वैदिक परंपरा में परिणामवादी सांख्यविचारधारा के विकसित और विरोध रूप में नाना प्रकार के वेदान्तदर्शनों का आविर्भाव होता है, और सांख्यों के परिणामवाद के विरोधी के रूपमें नैयायिक-वैशेषिक दर्शनों का आविर्भाव होता है । बौद्धदर्शनों का विकास भी परिणामवाद के आधार पर ही हुआ है । अनात्मवादी हो कर भी पुनर्जन्म और कर्मवाद को चिपके रहने के कारण बौद्धों में सन्तति के रूप में परिणामवाद आ ही गया है; किन्तु क्षणिकवाद को उसके तर्कसिद्ध परिणामों पर पहुंचाने के लिए बौद्धदार्शनिकों ने जो चिंतन किया उसीमें से एक और बौद्ध परंपरा का विकास सौत्रान्तिकों में हुआ जो द्रव्य का सर्वथा इनकार करते हैं; किन्तु देश
और काल की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न ऐसे क्षणों को मानते हैं और दूसरी ओर अद्वैत परंपरा में हुआ जो वेदान्त दर्शनों के ब्रह्माद्वैत की तरह विज्ञानाद्वैत और शून्याद्वैत जैसे वादों का स्वीकार करते हैं । जैनदर्शन भी परिणामवादी परंपरा का विकसित रूप है । जैनदार्शनिकोंने उपर्युक्त घातप्रत्याघातों का तटस्थ हो कर अवलोकन किया है और अपने अनेकान्तवाद की ही पुष्टि में उसका उपयोग किया है यह तो किसी भी दार्शनिक से छिपा नहीं रह सकता है । किन्तु यहाँ देखना यह है कि उपलब्ध जैनदार्शनिक साहित्य में ऐसा कौनसा ग्रन्थ है जो सर्वप्रथम दार्शनिकों के घातप्रत्याघातों को आत्मसात् करके उसका उपयोग अनेकान्त के स्थापन में ही करता है ।
. प्राचीन जैन दार्शनिक साहित्य सर्जन का श्रेय सिद्धसेन और समन्तभद्र को दिया जाता है । इन दोनों में कौन पूर्व और कौन उत्तर है इसका सर्वमान्य निर्णय अभी हुआ नहीं है । फिर भी प्रस्तुत में इन दोनों की कृतिओं के विषय में इतना ही कहना है कि वे दोनों अपने
अपने ग्रन्थ में अनेकान्त का स्थापन करते है अवश्य, किन्तु दोनों की पद्धति यह है कि परस्पर विरोधी वादों में दोष बताकर अनेकान्त का स्थापन वे दोनों करते हैं । विरोधी वादों के पूर्वपक्षों को या पूर्वपक्षीय वादों की स्थापना को उतना महत्त्व या अवकाश नहीं देते जितना उनके खण्डन को । अनेकान्तवाद के लिए जितना महत्त्व उस २ वाद के दोषों का या असंगति का है उतना महत्त्व बल्कि उससे अधिक महत्त्व उस २ वाद के गुणों का या संगति का भी है और गुणों का दर्शन उस २ वाद की स्थापना के विना नहीं होता है । इस दृष्टि से उक्त दोनों आचार्यों
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