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आचार्य मल्लवादी का नयचक्र
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आचार्य अकलंक' और विद्यानन्द के ग्रन्थों के अभ्यास के समय नयचक्र नामक ग्रन्थ के उल्लेख देखे, किन्तु उसका दर्शन नहीं हुआ । बनारस में आचार्य श्रीहीराचंद्रजी की कृपा से नयचक्रटीका की हस्तलिखित प्रति देखने को मिली । किन्तु उसमें नयचक्र मूल नहीं मिला । पता चला कि यही हाल सभी पोथिओं का है । विजयलब्धिसूरि ग्रन्थमाला में नयचक्रटीका के आधार पर नयचक्र का उद्धार करके अंशत: उसे सटीक छापा गया है । गायकवाड सिरीज में भी नयचक्रटीका अंशतः छापी गई है । मुनि श्री पुण्यविजयजी की प्रेरणा से मुनि श्री जम्बूविजयजी नयचक्र का उद्धार करने के लिए वर्षों से प्रयत्नशील हैं । उन्होंने उसीके लिए तिब्बती भाषा भी सीखी और नयचक्र की टीका की अनेक पोथिओं के आधार पर टीका को शुद्ध करने का तथा उसके आधार पर नयचक्र मूल का उद्धार करने का प्रयत्न किया है । उनके उस प्रयत्न का सुफल विद्वानों को शीघ्र ही प्राप्त होगा । कृपा करके उन्होंने अपने संस्करण के मुद्रित पचास फोर्म पृ. ४०० देखने के लिए मुझे भेजे हैं, और कुछ ही रोज पहले मुनिराज श्री पुण्यविजयजी ने सूचना दी कि उपाध्याय यशोविजयजी के हस्ताक्षर की प्रति, जो कि उन्होंने दीमकों से खाई हुई नयचक्रटीका की प्रति के आधार पर लिखी थी, मिल गई है। आशा है मुनि श्री जम्बूविजयज इस प्रति का पूरा उपयोग नयचक्रटीका के अमुद्रित अंश के लिए करेंगे ही एवं अपर मुद्रित अंश को भी उसके आधार पर ठीक करेंगे ही ।।
मैंने प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ (१९४६) में अपने लेख में नयचक्र का संक्षिप्त परिचय दिया ही है, किन्तु उस ग्रन्थ-रचना का वैलक्षण्य मेरे मन में तब से ही बसा हुआ है और अवसर की प्रतीक्षा में रहा कि उसके विषय में विशेष परिचय लिखू । दरमियान मुनि श्री जम्बूविजयजी ने श्री 'आत्मानंद प्रकाश' में नयचक्र के विषय में गुजराती में कई लेख लिखे और एक विशेषांक भी नयचक्र के विषय में निकाला है। यह सब और मेरी अपनी नोंधों के आधार पर यहाँ नयचक्र के विषय में कुछ विस्तार से लिखना है । नयचक्र का महत्त्व
जैन साहित्य का प्रारंभ वस्तुत: कब से हुआ इसका सप्रमाण उत्तर देना कठिन है । फिर भी इतना तो अब निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर को भी भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश की परंपरा प्राप्त थी । स्वयं भगवान् महावीर अपने उपदेश की तुलना भगवान् पार्श्वनाथ
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