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बोटिक की दृष्टि उत्पन्न हुई । यह दृष्टि रथवीरपुर
समुद्भुत हुई (३०३२).
अब विचारणीय यह है कि दिगम्बर सम्प्रदाय जो स्त्रीमुक्ति और केवली - कवलाहार का विरोध करता है, क्या वह भी बोटिक सम्प्रदाय के उत्थान का जो समय है, उसी समय में है ? आचार्य जिनभद्र की समग्र चर्चा से यह फलित नहीं होता कि दिगम्बर - श्वेताम्बर का भेद बोटिक के समय से ही हुआ; क्योंकि बोटिक की चर्चा में कहीं भी स्त्रीमुक्ति-निषेध की चर्चा नहीं है और केवली - कवलाहार का विरोध भी नहीं है । अतएव बोटिक सम्प्रदाय के बाद ही कभी दिगम्बर-सम्प्रदाय जो स्त्रीमुक्ति नहीं मानता और केवली - कवलाहार का निषेध करता है, उत्पन्न हुआ— यह मानना उचित है ।
ŚRUTA-SARITĀ
मूलप्रश्न, उपधि परिग्रह है या नहीं, दोनों ने समानरूप से उठाया है । आचार्य जिनभद्र ने कहा है कि आर्य कृष्ण के द्वारा जब जिन - कल्प का विवरण हो रहा था और स्थविर - कल्प तथा जिन- कल्प की उपधि की चर्चा जब कृष्णाचार्य ने की तब शिवभूति ने आचार्य कृष्ण से प्रश्न किया कि जिनकल्प का आचरण इस काल में क्यों न किया जाए ? आचार्य कृष्ण ने उत्तर में कहा कि इस काल जिनकल्प विच्छिन्न हो गया है । यह सुनकर शिवभूति ने कहा'असमर्थ पुरुषों के लिये यह विच्छिन्न हो - तो - हो, किन्तु समर्थ के लिये क्यों विच्छिन्न माना जाए ?' (विशे० ३०३६, ३०३७) आचार्य ने उसकी कम्बली के, विनापूछे टुकड़े कर दिये थे, अतएव उसका मन, कषाय से कलुषित हो चुका था और कहने लगा — परिग्रह से कषाय, मूर्च्छा भय आदि बहुत से दोष होते हैं, अतएव सूत्र में अपरिग्रह का समर्थन किया गया है और हम देखते हैं कि स्वयं जिनेन्द्र भगवन्तों ने तो अचेल रहना स्वीकार किया था और उन्हीं के द्वारा जब जिनकल्प की प्ररूपणा की गई है तो जिनकल्प का अनुसरण क्यों न किया जाए ? और सूत्र में मुनि को अचेल - परीषह का विजय करने वाला बताया है— इस से यह भी सिद्ध होता है कि भगवान को मुनि अचेल रहे, यही सम्मत है । भगवान ने वस्त्र रखने की जो बात कही है, वह भी तीन कारणों से है— अर्थात् यदि लज्जा जीत न सके, निन्दा से डर जाए और परीषह वस्त्र - ग्रहण के लिये कहा नहीं है । इसी यह सम्मत है (३०३९, ३०४०) अतएव
सहने का सामर्थ्य न हो, तब ही । ऐकान्तिक रूप से से निश्चित होता है कि जिनेन्द्र को 'मुनि अचेल रहे' मैं अचेल रहूँगा ।
शिवभूति के इन तर्कों का उत्तर आचार्य कृष्ण ने दिया, वह इस प्रकार है—
परिग्रह अर्थात् वस्त्रादि उपधि को कषाय का कारण माना जाय तो तुम्हारे इस शरीर को भी कषाय का हेतु क्यों न माना जाय ? तात्पर्य यह हुआ कि कषाय का कारण होने से यदि वस्त्रादि का त्याग अनिवार्य हो तो शरीर भी कषाय का कारण होने से उसका भी त्याग अनिवार्य हो जाएगा (३०४१)
संसार में ऐसी कौनसी वस्तु है जो किसी न किसी को कषाय का हेतु न बनती हो ? स्वयं धर्म भी किसी को कषाय का हेतु बनता है, तो क्या धर्म भी कषाय का कारण होने त्याज्य है ? देखा गया है कि स्वयं जिनेन्द्र भगवान महावीर, गोशालक और संगमदेव के
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