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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
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यशोविजय जी ने सभी दर्शनों का तथा अन्य शास्त्रों का पाण्डित्य प्राप्त करके न्यायविशारद की पदवी प्राप्त की । बादमें उन्होंने अकेले ही जैनदर्शन की उक्त क्षति की पूर्ति की ।
अनेकान्तव्यवस्था नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ नवीनन्यायशैली में लिखकर जैनदर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद का परिष्कार किया । इसी प्रकार जैन तर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु लिखकर जैनदर्शन की ज्ञानविषयक और प्रमाणविषयक परिभाषा को परिष्कृत किया । नयप्रदीप, नयरहस्य और नयामृततरङ्गिणी नामक स्वोपज्ञ टीका के साथ नयोपदेश लिखकर नयवाद का परिष्कार किया । न्यायखण्डखाद्य और न्यायालोक में नवीन शैली में ही नैयायिकादि दार्शनिकों के सिद्धान्तों का खण्डन किया । इसके अलावा अनेकान्तवाद का उत्कृष्ट प्राचीन ग्रन्थ अष्टसहस्त्री का विवरण तथा हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय की टीका स्याद्वादकल्पलता लिखकर इन दोनों ग्रन्थों को अद्यतनरूप दे दिया । भाषारहस्य, प्रमाणरहस्य, वादरहस्य आदि रहस्यान्त अनेक ग्रन्थ नवीनन्याय की परिभाषा में लिखकर जैन दर्शन में नये प्राण का सञ्चार कर दिया ।
यशोविजय के सिर्फ दर्शन के विषय में ही लिखा-यह बात नहीं । आगमिक अनेक गहन विषयों की सूक्ष्म चर्चा, अध्यात्मशास्त्र की चर्चा, योगशास्त्र, अलङ्कार और आचारशास्त्र की चर्चा करनेवाले भी अनेक पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की रचना करके जैन वाङ्मय को उन्नत भूमिका के ऊपर स्थापित करके अपने सर्वशास्त्रवैशारद्य का प्रदर्शन किया है ।
जैन दर्शनशास्त्र का नवीननन्याय का यह युग यशोविजययुग कहा जा सकता है, क्योंकि अकेले यशोविजय के ही साहित्य से इस युग का दार्शनिक-साहित्य भण्डार पुष्ट हुआ है । दूसरे विद्वानों ने कुछ छोटी-मोटी गिनती की पुस्तकों की रचना दार्शनिक क्षेत्र में की है सही किन्तु यशोविजय-साहित्य के सामने उन सभी का मूल्य नगण्य है। यशस्वत्सागरादि
इस युग में सं. १७५७ में विद्यमान यशस्वत्सागर ने सप्तपदार्थी, प्रामाण्यवादार्थ, वादार्थनिरूपण, स्याद्वादमुक्तावली जैसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की ।
दिगम्बर विद्वान् विमलदासने 'सप्तभङ्गी तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ का प्रणयन नवीनन्याय की शैली में किया है।
यशोविजय द्वारा स्थापित परम्परा का इस बीसवीं सदी में फिर से उद्धार हुआ है । आ. विजयनेमि का शिष्यगण नवीनन्याय का अध्ययन करके यशोविजय के साहित्य की टीकाओं का निर्माण करने लगा है ।।
[प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ से । ]
टिप्पण :१. "तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी ।
तो मुवइ नाणवुद्धि भवियजणविबोहणट्टाए ।
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