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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
दिगम्बर आम्नाय में कुन्दकुन्दाचार्य नाम के महान् प्रभावक आचार्य हुए हैं। उनका समय अभी विद्वानों में विवाद का विषय है । डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने अनेक प्रमाणों से उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी निश्चित किया है। मुनि श्री कल्याणविजयजी उन्हें पांचवीं - छठीं शताब्दी से पूर्व नहीं मानते । उनके ग्रन्थ दिगम्बर संप्रदाय में आगम के समान ही प्रमाणित माने जाते हैं । प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार, अष्टपाहुड़, नियमसार आदि उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । उन्होंने आत्मा का नैश्चयिक और व्यावहारिक दृष्टि से सुविवेचन किया है । सप्तभङ्गी का निरूपण भी उन्होंने किया है । उनके ग्रंथों पर अमृतचन्द्र आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने संस्कृत में तथा अन्य विद्वानों ने हिन्दी में व्याख्याएँ की हैं ।
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तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी टीकाएँ
आगमों में जैन प्रमेयों का वर्णन विप्रकीर्ण था । अतएव जैन तत्त्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान इत्यादि नाना प्रकार के विषयों का संक्षेप में निरूपण करने वाले एक ग्रन्थ की आवश्यकता की पूर्ति आचार्य उमास्वाति ने की । उनका समय अभी अनिश्चित है, किन्तु उन्हें तीसरी चौथी शताब्दी का विद्वान माना जा सकता है । अपने सम्प्रदाय के विषय में भी उन्होंने कुछ निर्देश नहीं किया, किन्तु श्री नाथूरामजी प्रेमी ने एक लेख लिख कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि वे यापनीय थे । उनका यापनीय होना युक्तिसंगत मालूम देता है । उनका 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय में मान्य हुआ हैं । इतना ही नहीं, बल्कि जब से वह बना है तब से अभी तक उसका आदर और महत्त्व दोनों संप्रदायों में बराबर बना रहा है । यही कारण है कि छठी शताब्दी के दिगम्बराचार्य पूज्यपाद ने उस पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका की रचना की । आठवीं नवीं शताब्दी में तो इसकी टीका की होड़सी लगी है । अकलङ्क और विद्यानन्द ने क्रमशः 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' की रचना की । सिद्धसेन और हरिभद्र ने क्रमश: बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियों की रचना की । पूर्वोक्त दो दिगम्बर हैं और अंतिम दोनों श्वेताम्बर हैं । ये पांचों कृतियाँ दार्शनिक ही हैं । जैन दर्शन सम्मत प्रत्येक प्रमेय का निरूपण अन्य दर्शन के उस उस विषयक मन्तव्य का निराकरण करके ही किया गया है । यदि हम कहें कि अधिकांश जैन- दार्शनिक साहित्य का विकास और वृद्धि एक तत्त्वार्थ को केन्द्र में रखकर ही हुआ है तो अत्युक्ति नहीं होगी । दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय के ऊपर धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक लिखा और जिस प्रकार उसीको केन्द्र में रखकर समग्र बौद्धदर्शन विकसित और वृद्धिंगत हुआ उसी प्रकार तत्त्वार्थ के आसपास जैन दार्शनिक साहित्य का विकास और वृद्धि हुई है । बारहवीं शताब्दी में मलयगिरि ने और चौदहवीं शताब्दी में किसी चिरन्तन मुनि ने भी टीकाएँ बनाईं। आखिर में अठारहवीं शताब्दी में यशोविजयजी ने भी अपनी नव्य परिभाषा में इसकी टीका करना उचित समझा और इस प्रकार पूर्व की सत्रहवीं शताब्दी तक के दार्शनिक विकास का भी अंतर्भाव इसमें हुआ । एक दूसरे यशोविजयगणि ने प्राचीन गुजराती में इसका बालावबोध बनाकर इस कृति को भाषा की दृष्टि से आधुनिक भी बना दिया । ये सभी श्वेताम्बर थे । दिगम्बरों में भी श्रुतसागर (सोलहवीं शताब्दी), विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी सूरि आदि ने भी संस्कृत में टीकाएँ बनाई हैं । और कुछ दिगम्बर
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