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जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा ।
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किया । वसुबन्धु के शिष्य दिग्नाग ने भी उनका समर्थन किया और समर्थन करने के लिए बौद्ध दृष्टि से नवीन प्रमाण-शास्त्र की भी नींव रखी । इसी कारण से वह बौद्ध न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है । उसने युक्तिपूर्वक सभी वस्तुओं की क्षणिकता के बौद्ध सिद्धान्त का समर्थन किया ।
बौद्ध विद्वानों के विरुद्ध में भारतीय सभी दार्शनिकों ने अपने अपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए पूरा बल लगाया । नैयायिक वात्स्यायन ने नागार्जुन और अन्य बौद्ध दार्शनिकों का खण्डन करके आत्मादि प्रमेयों की भावरूपता और उन सभी का पार्थक्य सिद्ध किया । मीमांसक शबर ने विज्ञानवाद और शन्यवाद का निरास करके वेदापौरुषेयता स्थिर की । वात्स्यायन और शबर दोनों ने बौद्धों के 'सर्वं क्षणिकं' सिद्धान्त की आलोचना करके आत्मादि पदार्थों की नित्यता की रक्षा की । साँख्यों ने भी अपने पक्ष की रक्षा के लिए प्रयत्न किया । इन सभी को अकेले दिग्नाग ने उत्तर देकर के फिर विज्ञानवाद का समर्थन किया । तथा बौद्ध संमत सर्व वस्तुओं की क्षणिकता का सिद्धान्त स्थिर किया ।
ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक चलने वाले दार्शिनिकों के इस संघर्ष का लाभ जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकान्तवाद की व्यवस्था करके लिया ।
भगवान महावीर के उपदेशों में नयवाद अर्थात् वस्तु की नाना दृष्टिबिन्दुओं से विचारणा को स्थान था । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार अपेक्षाओं के आधार से किसी भी वस्तु का विधान या निषेध किया जाता है, यह भी भगवान की शिक्षा थी । तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेप को लेकर किसी भी पदार्थ का विचार करना भी भगवान ने सिखाया था । इन भगवदुपदिष्ट तत्त्वों के प्रकाश में जब सिद्धसेन ने उपर्युक्त दार्शनिकों के वादविवादों को देखा तब उन्होंने अनेकान्त व्यवस्था के लिये उपयुक्त अवसर समझ लिया और अपने सन्मतितर्क नामक ग्रंथ में तथा भगवान् की स्तुति प्रधान बत्तीसिओं में अनेकान्तवाद का प्रबल समर्थन किया । यह कार्य उन्होंने वि. पाँचवीं शताब्दी में किया ।।
सिद्धसेन की विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नानावादों को नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया । अद्वैतवादिओं की दृष्टि को उन्होंने जैन-सम्मत संग्रह नय कहा । क्षणिकवादी बौद्धों का समावेश ऋजुसूत्रनय में किया । सांख्यदृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिकनय में किया । तथा कणाद के दर्शन का समावेश द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में कर दिया । उनका तो कहना है कि संसार में जितने दर्शनभेद हो सकते हैं जितने भी वचनभेद हो सकते है, उतने ही नयवाद हैं और उन सभी के समागम से ही अनेकान्तवाद फलित होता है । ये नयवाद, ये परदर्शन तभी तक मिथ्या हैं जब तक वे परस्पर को मिथ्या सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, एक दूसरे के दृष्टिबिन्दु को समझने का प्रयत्न नहीं करते । अतएव मिथ्याभिनिवेश के कारण दार्शनिकों को अपने मत की क्षतियों का तथा दूसरों के मत की खूबियों का पता नहीं लगता । एक तटस्थ व्यक्ति ही आपस में लड़ने वाले इन वादियों के गुण-दोषों को जान सकता है । स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का अवलम्बन लिया जाय तो कहना होगा कि अद्वैतवाद भी एक दृष्टि से ठीक है । जब मनुष्य
अभेद की ओर दृष्टि करता है और भेद की ओर उपेक्षाशील हो जाता है तब उसे ही अभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only
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