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ŚRUTA-SARITĀ
उक्त आगमों में से कुछ के ऊपर भद्रबाहु ने नियुक्तियाँ वि. पाँचवीं शताब्दी में की हैं। नियुक्ति के ऊपर वि. सातवीं शताब्दी में भाष्य बने । ये दोनों पद्य में प्राकृत भाषा में ग्रथित हैं । इन नियुक्तियों और उनके भाष्य के आधार से प्राकृत गद्य में चूर्ण नामक टीकाओं की रचना वि. आठवीं शताब्दी में हुई । सर्व प्रथम संस्कृत टीका के रचयिता जिनभद्र हैं । उनके बाद कोट्टाचार्य, कोट्याचार्य और फिर हरिभद्र हैं । हरिभद्र का समय वि. ७५७-८२७ मुनि श्री जिन विजयजी ने निश्चित किया है ।
नियुक्ति से लेकर संस्कृत टीकाओं पर्यन्त उत्तरोत्तर तर्क प्रधान शैली का मुख्यतः आश्रय लेकर आगमिक बातों का निरूपण किया गया है । हरिभद्र के बाद शीलाङ्क, अभयदेव और मलयगिरि आदि हुए । इन्होंने टीकाओं में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का पर्याप्त मात्रा में ऊहापोह किया है ।
दिगम्बर आम्नाय के आगमों के ऊपर भी चूर्णियाँ लिखी गई हैं । वि. दसवीं शताब्दी में वीरसेनाचार्य ने बृहत्काय टीकायें लिखी हैं । ये टीकाएँ भी दार्शनिक चर्चा से परिपूर्ण हैं ।
आगमों में सब विषयों का वर्णन विप्रकीर्ण था या अतिविस्तृत था । अतएव सर्व विषयों का सिलसिले से सार संग्राहक संक्षिप्त सूत्रात्मक शैली से वर्णन करने वाला तत्त्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ वाचक उमास्वाति ने बनाया । जैन धर्म और दर्शन की मान्याताओं का इस ग्रन्थ में इतने अच्छे ढंग से वर्णन हुआ है कि जब से वह वि. चौथी या पाँचवीं शताब्दी में बना तब से जैन विद्वानों का ध्यान विशेषतः इसकी ओर गया है । आचार्य उमास्वाति ने स्वयं भाष्य लिखा ही था । किन्तु यह पर्याप्त न था क्योंकि समय की गति के साथ साथ दार्शनिक चर्चाओं में गम्भीरता और विस्तार बढ़ता जाता था जिसका समावेश करना अनिर्वाय समझा गया । परिणाम यह हुआ कि पूज्यपाद ने छठी शताब्दी में एक स्वतंत्र टीका लिखी जिसमें उन्होंने जैन पारिभाषिक शब्दों के लक्षण निश्चित किये और यत्र तत्र दिग्नागादि बौद्ध और अन्य विद्वानों का अल्प मात्रा में खण्डन भी किया । विक्रम सातवीं आठवीं शताब्दी में अकलंक, सिद्धसेन और उनके बाद हरिभद्र ने अपने समय तक होने वाली चर्चाओं का समावेश उसमें कर दिया । किन्तु तत्त्वार्थ की सर्व श्रेष्ठ दार्शनिक टीका श्लोकवार्तिक नामक है जिसके रचयिता विद्यानन्द हैं ।
आगमों की तथा तत्त्वार्थ की टीकायें यद्यपि आगम युग की नहीं हैं किन्तु उनका सीधा सम्बन्ध मूल के साथ होने से यहीं उनका संक्षिप्त परिचय करा दिया है । (२) अनेकान्तव्यवस्था युग :
नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिग्नाग ने भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नई गति प्रदान की है । नागार्जुन ने तत्कालीन बौद्ध और बौद्धेतर सभी दार्शनिकों के सामने अपने शून्यवाद को उपस्थित करके वस्तु को सापेक्ष सिद्ध किया । उनका कहना था कि वस्तु न भावरूप है, न अभावरूप और न उभय या अनुभयरूप । वस्तु को किसी भी विशेषण देकर उसका रूप बताया नहीं जा सकता, वस्तु अवाच्य है यही नागार्जुन का मन्तव्य था । असङ्ग और वसुबन्धु ये दोनों भाईयों ने वस्तु मात्र को विज्ञानरूप सिद्ध किया और बाह्य जड़ पदार्थों का अपलाप
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