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प्राचीन जैन साहित्य के प्रारंभिक निष्ठासूत्र
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हो सकता है परन्तु प्रेरणा प्राप्तकर अनुष्ठान उसी व्यक्ति को करना होता है । इस प्रकार प्रेरक तो तीर्थंकर बने; धर्मानुष्ठान का मार्ग बतानेवाले हुए, परन्तु उनके बताए हुए मार्ग पर चलने का काम तो साधक के लिए निश्चित हुआ । इस प्रकार जैन साहित्य में ईश्वर का स्थान तीर्थंङ्गर ने लिया । जो मात्र मार्गदर्शक या मार्गकारक है; परन्तु वे दूसरों का कल्याण करने या दण्ड देने के लिए शक्तिमान नहीं । उनके आशीर्वाद से कुछ प्राप्त नहीं होता, परन्तु उनके बताए हुए मार्ग पर चलने से ही व्यक्ति अपना कल्याण कर सकता है ।
इस प्रकार जैन साहित्य में भक्ति तो है परन्तु वह एकपक्षीय भक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुई । उस भक्ति में लेन-देन नहीं है, मात्र आदर्श की उपस्थिति है । इस प्रकार जैन दर्शन में ईश्वर या भगवान् की समग्र भाव से नवीन कल्पना उपस्थित हुई और उनकी पुष्टि समग्र जैन साहित्य में दिखाई देती है। जैनों ने वैदिकों की भांति अनेक मंदिर, पूजा आदि भक्ति निमित्त से निर्मित किए परन्तु उसमें बिराजमान भगवान् वीतरागी हैं अतएव वे भक्त की भक्ति से प्रसन्न भी नहीं होते और भक्त से नाराज भी नहीं होते ।
इस प्रकार की बहुत सी मौलिक विशेषताओं से 'आगम' नाम से पहचाना जाने वाला जैन साहित्य समृद्ध है । उस साहित्य की जो टीकाएँ रची गई उनमें मौलिक धारणाएँ तो कायम ही रही, परन्तु जिस कठोर आचरण की अपेक्षा मूल में की गई थी उसका पालन सहज नहीं था; और फिर धर्म जब एक समूह का धर्म बन जाता है, उसके अनुयायियों का एक विशाल समाज बनता है, तब उसके मौलिक कठोर आचरण में देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करना भी अनिवार्य बन जाता है और उसके लिए सुविधा मूल आगम के टीकाकारों ने उपलब्ध कर दी है । अहिंसा आदि की जो मौलिक विचारणा थी उसमें ढील-ढाल भी कर दी है । वह भी इतनी हद तक कि गीता की अहिंसा और जैन आगम की टीका की अहिंसा में कोई विशेष भेद नहीं रह गया परिस्थिति ने पलटा खाया उसमें भी भगवान् महावीर ने यज्ञ आदि में जो आध्यात्मिक हिंसा थी उसके स्थान पर आत्यंतिक अहिंसा का प्रतिपादन किया था, वह अब ढीला पड गया । बहुत लंबे काल तक नहीं टिक सका यह एक हकीकत है। इसलिए आखिरकार मध्यममार्गीय अहिंसा भी अस्तित्व में आई और हिंसा भी मध्यममार्ग पर आ खड़ी हुई; धर्माचरण में यज्ञों के अनुष्ठान में से हिंसा लगभग निकल गई, उसी प्रकार अहिंसा के अति कठोर मार्ग में से अहिंसा का आचरण भी मध्यम मार्ग पर आ पहुँचा । 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' का सिद्धांत ही आखिरकार स्वीकार्य बनता है, यह इस आत्यंतिक हिंसा और आत्यंतिक अहिंसा के द्वन्द्व में भी दृष्टिगोचर होता है ।
पूर्ववणित जैन निष्ठाओं को आधार बनाकर विपुल प्रमाण में आगमेतर साहित्य की रचना हुई है । उसका एक मात्र ध्येय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पुष्ट करना है । जैन आचार्यों ने ललित वाङ्मय पर जो काम किया-वह साधारण नहीं है-उसमें भी इस मौलिक ध्येय को वे भूले नहीं है । श्रृङ्गारप्रधान कृति की रचना करते हुए भी अन्त में तो साधु के आचार का स्वीकार और उसके परिणाम स्वरूप मोक्ष जैसे परम ध्येय की प्राप्ति में
पर्यवसान होता है और दूसरे पक्ष में अगर हिंसा आदि दूषण हों तो उसका परिणाम नरक यातना Jain Education International For Private & Personal Use Only
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