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________________ २ | योगदृष्टि समुच्चय ० शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥ यथाशक्ति प्रमादरहित, श्रद्धावान्, तोव बोधयुक्त पुरुष के आगमवचन-शास्त्र-ज्ञान के कारण अविकल-अखण्ड अथवा काल आदि की अविकलता-अखण्डता के कारण अविकल-सम्पूर्ण योग शास्त्रयोग कहा जाता है। [ ५ ] शास्त्रसदशितोपायस्तदतिक्रान्तगोचर: शक्त्युद्र काद्विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः॥ शास्त्र में जिसका उपाय बताया गया है, शक्ति के उद्रेक-जागरणप्रबलता के कारण जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रान्त-अतीत–पर है, वैसा उत्तम योग सामर्थ्य-योग कहा जाता है। सिद्ध याख्यपदसम्प्राप्तिहेतुभेदा न तत्त्वतः । शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथैवेह योगिभिः ॥ सिद्धि-चरम सफलता रूप पद को प्राप्त करने के हेतुओं के भेदकारणों का तत्त्वतः विश्लेषण योगोजन केवल शास्त्रों के माध्यम से ही सम्पूर्णतया नहीं जान पाते । [ ७-८ ] सर्वथा तत्परिच्छेदात् साक्षात्कारित्वयोगतः । तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्ध स्तदा सिद्धिपदातितः ॥ न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः । सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाधनम् ॥ सर्वथा शास्त्र द्वारा तत् - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान आदि अधिगत हो जायँ तो साक्षात्कारित्व-प्रत्यक्ष-इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञान का उद्भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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