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प्रकाशकीय
ज्ञान मनुष्य का तृतीय नेत्र है। यह नेत्र पूर्व कर्म-क्षयोपशम से स्वयं भी खुल सकता है, और किसी किसी के गुरु जनों के उपदेश व शास्त्र-स्वाध्याय से भी खुलते हैं । उपादान तो आत्मा स्वयं है, किंतु निमित्त भी बहुत मूल्यवान होता है। गुरु-उपदेश और शास्त्र-स्वाध्याय का निमित्त प्राप्त होना भी अति महत्त्वपूर्ण है।
शास्त्र-स्वाध्याय के लिए सद्ग्रन्थों की उपलब्धि आवश्यक है। हमारी संस्था सत्साहित्य के प्रकाशन में प्रारम्भ से ही रुचि ले रही है, और अनेकानेक साधन जुटाकर पाठकों को कम मूल्य में उपयोगी व महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराने में प्रयत्नशील रही हैं। संस्था के प्राणसम आधार एवं चक्षु-सम मार्गदर्शक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज इस दिशा में बहुत ही जागरूक हैं। आपकी प्रेरणा व मार्गदर्शन में संस्था ने कुछ ही वर्षों में आशातीत प्रगति को है, और भविष्य में भी अनेक महत्त्वपूर्ण प्रकाशन योजनाधीन हैं। ___ दो वर्ष पूर्व युवाचार्य श्री की भावना के अनुसार विदुषी श्रमणी रत्न महासती श्री उमरावकंवरजी महाराज ने आचार्य श्री हरिभद्र कृत योग ग्रन्थों का सम्पादन व संशोधन करवाया था । महासती जी के मार्गदर्शन में विद्वान डा० छगनलाल जी शास्त्री ने इन चारों ग्रन्थों का सुन्दर सम्पादन-विवेचन कर एक अनूठा कार्य किया है। . __वर्तमान में योग के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है । शान्ति, आनन्द और आरोग्य का मूल योग है, योग से ध्यान सिद्ध होता है, और योग व ध्यान की-अभ्यास-साधना से ही आज के संत्रासपूर्ण युग में मानव को शान्ति सुलभ हो सकती है। हमारी संस्था ने कुछ वर्ष पूर्व आचार्य श्री हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र का हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन किया था जो काफी लोकप्रिय हुआ। योग के महान् आचार्य हरिभद्र की कृतियाँ प्रायः दुर्लभ थो। स्वाध्याय प्रेमी जन इनके लिए प्रयत्न करने पर भी प्राप्त नहीं कर पा रहे थे, अब युवाचार्य श्री तथा महासती उमरावकंवर जी एवं डा० छगनलाल जी के प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं सम्पादन-श्रम से ये चारों दुर्लभ ग्रन्थ सुलभ हो रहे हैं, इसके लिए हमें भी गौरव है।
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