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________________ ( ५७ ) प्रकाशावरण, सोपक्रम निरुपक्रम,२ वज्र-संहनन,३ केवली, कुशल,५ ज्ञानावरणीय कर्म, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सर्वज्ञ, क्षीणक्लेश,१० चरमदेह १ आदि शब्दों का जैनागम एवं योग सूत्र में प्रयोग मिलता है । २. विषय साम्य योग-सूत्र और जैन दर्शन में शब्दों के समान विषय-निरूपण में भी साम्य है। प्रसुप्त, तनु आदि क्लेश अवस्थाएँ,१२ पाँच यम,१३ योगजन्य विभूति,१४ -- १ (क) योग शास्त्र, २, ५२, ३, ४३ । जैनागमों में प्रकाशावरण के स्थान में झानावरण शब्द का प्रयोग मिलता है, परन्तु दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है-ज्ञान को आवृत करने वाला कर्म । (ख) तत्त्वार्थ सूत्र, ६, १०; भगवती सूत्र, ८, ९, ७५-७६ ।। २ योग सूत्र ३, २२ । जैन कर्म-ग्रन्थ. तत्त्वार्थ सूत्र (भाष्य) २, ५२; स्थानांग सूत्र (वृत्ति) २, ३, ८५॥ ३ योग-सूत्र ३, ४६ । तत्त्वार्थ (भाष्य) ८, १२ और प्रज्ञापना सूत्र । जैन आगमों में वज्रऋषभ-नाराच-संहनन शब्द मिलता है। ४ योग-सून (भाष्य), २, २७, तत्त्वार्थ सूत्र, ६, १४ । ५ योग-सूत्र २, २७; दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १८६ । ६ योगसूत्र (भाष्य), २, ५१; उत्तराध्ययन सूत्र ३३, २; आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८६३ । ७-८ योग-सूत्र २, २२८; ४, १५; तत्त्वार्थ सून १, १; स्थानांग सूत्र ३, ४, १६४ । ६ योग-सूत्र (भाष्य), ३, ४६; तत्त्वार्थ सूत्र (भाष्य) ३, ३६ । १० योग-सूत्र १, ४ । जैन शास्त्र में बहुधा क्षीणमोह, क्षीणकषाय शब्द मिलते हैं देखे तत्त्वार्थ, ६, ३८; प्रज्ञापना सूत्र पद १ । ११ योग-सून (भाष्य) २, ४; तत्त्वार्थ सून २, ५२; स्थानांग सूत्र (वृत्ति), २, ३, ८५ । १२ १ प्रसुप्त, २ तनु, ३ विच्छिन्न और ४ उदार-इन चार अवस्थाओं का योग सूत्र २, ४ में वणन है । जैन-शास्त्र में मोहनीय कर्म की सत्ता, उपशम, क्षयोपशम विरोधि प्रकृति के उदयादि कृत व्यवधान और उदयावस्था के वर्णन में यही भाव परिलक्षित होते हैं । इसके लिए उपाध्याय यशोविजय जी कृत योग-सूत्र (वृत्ति) २, ४, देखें। १३ पाँच यमों का वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों में भी है, परन्तु उसकी परिपूर्णता योग सूत्र के "जाति-देश काल-समयाऽनवच्छिन्नाः, सार्वभौमा महानतम्" योगसूत्र २, ३१ में तथा दशवकालिक सूत्र अध्ययन ४ एवं अन्य आगमों में वर्णित महाव्रतों में परिलक्षित होती है। १४ योग-सूत्र के तृतीय पाद में विभूतियों का वर्णन है। वे विभूतियाँ दो प्रकार की हैं-१ ज्ञानरूप, और २ शारीरिक । अतीताऽनागत-ज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परिचितज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान आदि ज्ञान-विभूतियाँ हैं। (Contd.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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