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________________ ( ५१ > यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योग' शब्द की अपेक्षा 'तप' शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में अधिक व्यापक रूप से प्रयोग हुआ है । उपनिषदों में जहाँ-तहाँ 'योग' शब्द आध्यात्मिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, तो वह सांख्य-परम्परा या उसके समान किसी अन्य परम्परा के साथ प्रयुक्त हुआ है । फिर भी इतना तो कहना होगा कि उपनिषद् - काल में योग शब्द का आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग होने लगा था । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदों में भी योग, ध्यान आदि समाधि के अर्थ में पाये जाते हैं । ' अनेक उपनिषदों में योग का विस्तृत वर्णन मिलता है । उनमें योग-शास्त्र की तरह योग-साधना का सांगोपांग वर्णन मिलता है । २ वेदों के बाद उपनिषद् - काल में आध्यात्मिक चिन्तन को महत्त्व दिया गया । उपनिषदों में जगत्, जीव और परमात्मा सम्बन्धी बिखरे हुए विचारों को विभिन्न ऋषियों ने सूत्रों में ग्रथित किया । इस तरह आध्यात्मिक चिन्तन को दर्शन का रूप मिला । क्योंकि समस्त दार्शनिकों का अन्तिम ध्येय मोक्ष रहा । यह हम पहले ही बता चुके हैं कि मुक्ति के लिए कोरे ज्ञान की ही नहीं, साथ में क्रिया - साधना की भी आवश्यकता रहती है । इसलिए सभी दार्शनिकों ने साधना रूप से योग की उपयोगिता को स्वीकार किया है । महर्षि गौतम के न्याय दर्शन में मुख्य रूप से प्रमाणविषयक विचार हैं, उसमें भी योग-साधना को स्थान दिया है महर्षि कणाद ने भी वैशेषिक दर्शन में यम, नियम, शौचादि योगांगों का वर्णन किया है । सांख्य दर्शन में भी योग विषयक अनेक सूत्र हैं ।' महर्षि बादरायण ने ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्ययन का नाम 'साधन' रखा है और उसमें आसन, ध्यान आदि योगांगों का वर्णन किया है। योग दर्शन तो प्रमुख रूप से योग विषयक ग्रन्थ है ही, अतः उसमें योग । १ तैत्तिरीय उप ०, २, ४, कठोपनिषद् २, ६, ११; श्वेताश्वतर उप० २, ११; ६, ३; १, १४; छान्दोग्य उप० ७, ६, १, ७, ६, २, ७, ७, १७, २६, १, कोषीतकि, ३, २, ३, ३; ३, ४ । २ ब्रह्मविद्योपनिषद्, क्षरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु; Philosophy of Upanishads. ३ समाधि-विशेषाभ्यासात् । अरण्य - गुहा- पुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः । तदर्थं यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः । , - न्याय - दर्शन, ४, २, ३८ ४ २, ४२, ४, २, ४६. ४ अभिषेचनोपवास- ब्रह्मचर्य - गुरुकुलवास, वानप्रस्थ-यज्ञदान- प्रोक्षण-दिङ-नक्षत्र-मन्त्रकाल-नियमाश्चादृष्टाय । - वैशेषिक दर्शन, ६, २, २, ६, २, ८. • ५ सांख्य सूत्र, ३, ३०– ६ ब्रह्मसूत्र, ४, १, ७– Jain Education International -३४. -११. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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