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२७२ | योग-विशि का
जो देश-विरत-अंशतः विरत हैं-ब्रतयुक्त (पंचम गुणस्थानवर्ती) हैं, वे इसके अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्य-वन्दन-सूत्र में 'कायं वोसरामि' देह का व्युत्सर्ग करता हूं, इन शब्दों से कायोत्सर्ग की जो प्रतिज्ञा प्रकट होती है, वह सुव्रती के विरति-भाव या व्रत के कारण ही घटित होती है। इस तथ्य को भली भाँति समझ लेना चाहिए।
__ इस सन्दर्भ में इतना और जोड़ लेना चाहिए-देशविरत से उच्चस्थानस्थ षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधक तत्त्वतः इसके अधिकारी हैं तथा देशविरत से निम्नस्थानस्थ अपुनर्बन्धक या सम्यकदृष्टि व्यवहारतः इसके अधिकारी माने गये हैं।
तित्थस्सुच्छेयाइ वि नालंबणमित्थ जं स एमेव ।
सुत्तकिरियाइनासो एसो असमंजसविहाणा ॥ तीर्थ के उच्छेद-नाश की बात कहकर अर्थात् वैसा न करने से तीर्थ उच्छिन्न हो जायेगा, ऐसा प्रतिपादित कर-बहाना बनाकर विधिशून्य अनुष्ठान का सहारा नहीं लेना चाहिए। क्योंकि अविधि का आश्रय लेने से असमंजस- शास्त्रविरुद्ध क्रम प्रतिष्ठित होता है। इससे शास्त्रविहित क्रिया आदि का लोप हो जाता है। यही तीर्थोच्छेद है। अर्थात् ऐसा करने से तीर्थ के अनुच्छेद के नाम पर वास्तव में तीर्थ का उच्छेद हो जाता है।
[ १५ ] सो एस वंकओ चिय न य सयमयमारियाणमविसेसो। एयं पि भावियब्वं इह तित्थुच्छेयभीरहि ॥
अविधि के पक्षपात एवं आग्रहवश तथाकथित गुरु द्वारा प्रदत्त उपदेश से जो शास्त्र-निरूपित विधि का नाश होता है, वह वक्र-विपरीत या अनिष्ट फलप्रद है।
कोई स्वयं मर जाएँ अथवा दूसरों द्वारा मारे जाएं, यह एक जैसी बात नहीं है । अज्ञान के कारण स्वयं मर जाने वालों की मौत के लिए दूसरा कोई दोषी नहीं होता पर जो दूसरों द्वारा मारे जाते हैं, उनकी मौत का
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