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________________ २६४ | योग-शतक विस्तार से व्याख्यात था, ऐसा उत्तरवर्ती आचार्यों ने उल्लेख किया है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के पाँचवें प्रकाश में नाड़ी, बाह्य लक्षण, नेत्र, कान, मस्तक, शकुन, उपश्रुति, लग्न, यन्त्र, विद्या प्रयोग आदि द्वारा मृत्यु- काल के निर्णय का विस्तृत वर्णन किया है । इस प्रसंग में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ टीका में अन्य आचार्यों का अभिमत उपस्थित करते हुए दो श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनका आशय इस प्रकार है "जिनकी आयु क्षीण हो चुकती है, वे अरुन्धती, ध्रुव, विष्णुपद तथा मातृमण्डल नहीं देख पाते । यहाँ अरुन्धती जिह्वा ध्रुव नासिका के अग्रभाग, विष्णुपद दूसरे के नेत्र की कनीनिका देखने पर दीखने वाली अपनी कनीनिका तथा मातृमण्डल भ्रुवों के अर्थ में प्रयुक्त है । "", [ ε= ] स. हसावयाइभक्खण- समणायमणुद्धरा आट्ठिदीओ । गंधपरिट्टाओ जाणंति समयन्नू ॥ तहा कालं स्वप्न में हिंसक - शिकारी जानवरों द्वारा कोई अपने को खाया जाता देखे, स्वप्न में निर्ग्रन्थ यति, संन्यासी या तापस को देखे, देह से एक विशेष प्रकार की गन्ध आने लगे अथवा उसकी नासिका गन्ध - ग्रहण करने में अशक्त हो जाये - इनके आधार पर शास्त्रवेत्ता मृत्यु का समय जान जाते हैं । { आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में स्वप्न के सन्दर्भ में सूचित किया १. अरुन्धतीं ध्रुवं चैव विष्णोस्त्रीणि पदानि च । क्षीणायुषो न पश्यन्ति चतुर्थ मातृमण्डलम् ॥ अरुन्धती भवेज्जिह्वा, ध्र ुवं नासाप्रमुच्यते । तारा विष्णुपद प्रोक्त ं भ्र ुवः स्यान्मातृमण्डलम् "1 Jain Education International -- - योगशास्त्र ५ वें प्रकाश के १३६वें श्लोक की व्याख्या के अन्तर्गत उद्धृत । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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