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________________ २६२ | योग-शतक है। उससे शुक्लध्यान सिद्ध होता है । फिर क्रमशा केवल ज्ञान प्राप्त होता है। [ ११ ] वासीचंदणकप्पं तु एत्थ सिटुं मओ च्चिय बुहेहिं। आसयरयणं भणियं अओऽन्नहा ईसि दोसा वि ॥ योगवेसाओं ने आशय-रत्न-अभिप्राय, रूप रत्न को-उत्तम भाव को वासि-चन्दन के सदृश कहा है। यदि अभिप्राय इस कोटि का-ऐसे पवित्र स्तर का न हो तो वहाँ किञ्चित् दोष भी बताया गया है। [ २ ] जइ तब्भवेण जायइ जोगसमसी अजोगयाए तओ। जम्माइदोसरहिया होइ सदेगंतसिद्धि ति ॥ यदि योगी के उसी भव में, जिसमें वह विद्यमान है, योग-समाप्तियोग-साधना की सम्पन्नता या सम्पूर्णता सध जाए तो अयोग-मन, वचन तथा शरीर के योग-प्रवृत्तिकम से वह उपरत हो जाता है और निश्चित रूप से सिद्धि प्राप्त कर लेता है। [ ६३ ] असमत्ती य उ चित्तेस, एत्थ ठाणेसु होइ उप्पाओ । तत्थ वि य तयणुबंधो तस्स तहन्भासओ चेव ॥ यदि उसी भव में योगी की योग-साधना समाप्त नहीं होती तो उसका अनेक स्थानों में जन्म होता है। पूर्वभव के अभ्यास के कारण विभिन्न स्थानों में उसके निरन्तर योग-संस्कार बना रहता है। [ ६४ ] जह खलु दिवसम्भत्थं राईए सुविणयम्मि पेच्छिंति । तह इह जम्मभत्थं सेवंति भवंतरे जीवा ।। मनुष्य को दिन में जिसका अभ्यास रहा हो-जिसमें वह बार-बार प्रवृत्त रहा हो, रात में उसी (विषय) को वह स्वप्न में देखता है । उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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