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________________ उपदेश : नियम | २४५ वह अत्यन्त विपाक-दारुण-परिणाम में अत्यधिक कष्टप्रद होता है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि उससे योगी के गुणों की अवहेलना होती है, वह अयोग्य पुरुष स्वयं अपना नाश करता है तथा औरों का भी नाश करता है। इससे धर्म का हलकापन दीखता है । [ ३८ ] एयम्मि परिणयम्मी पवत्तमाणस्स अहियठाणेसु । एस विही भइनिउणं पायं साहारणो नेओ ॥ __यों जीवन में परिपक्वता पा लेने के बाद उत्तरवर्ती उत्तम गुणस्थानों में प्रवर्तन करते हुए-चढ़ते हुए साधकों के लिए अत्यन्त निपुणता-सूक्ष्मतापूर्वक कहे जाते नियमों को प्रायशः साधारण-सर्वग्राह्य मानना चाहिए। [ ३६ ] निययसहावालोयण-जणवायावगम-जोगसुद्धहि ।। उचियत्तं नाऊचं निमित्तओ सय पयट्टज्जा ॥ अपने स्वभाव-प्रकृति का अवलोकन करते हुए, जनवाद–लोकवाद -लोकपरंपरा को जानते हुए शुद्ध योग के आधार पर प्रवृत्ति का औचित्य समझकर बाह्य निमित्त-शकुन-स्वर, नाड़ी, अंगस्फुरण आदि का अंकन करते हुए उनमें (नियमों के अनुसरण में) प्रवृत्त होना चाहिए। [ ४० ] गमणाइएहिं कायं निरवज्जेहिं वयं च भणिएहि । सुहचितणेहि य मणं सोहेज्जा जोगसिद्धि ति ॥ निर्दोष गमन आदि-यत्नपूर्वक-यतना सहित जाना, आना, उठना, बैठना, खाना, पीना आदि क्रियाओं द्वारा शरीर का, निरवद्य-पापरहित वाणी द्वारा वचन का तथा शुभ चिन्तन द्वारा मन का शोधन करना योगसिद्धि है। [ ४१ ] सुहसंठाणा अन्ने कार्य वायं च सुहसरेणं तु । सुहसुविहिं च मणं जाणेज्जा साहुसिद्धि ति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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