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गृही साधक | २४३
तीसरी श्रेणी के साधक ( चारित्री) को नीति-युक्तिपूर्वक सामायिक आदि से सम्बद्ध परमार्थोद्दिष्ट भावप्रधान उपदेश देना चाहिए, जिससे वह उत्तम योगसिद्धि की ओर बढ़ता जाये ।
गृही साधक
[ ३०-३२ ]
स धम्माणुवरोहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध । जिणपूय - भोयणविही संझानियमो य जोगं तु ॥ चियवंदण - जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयति । गिहिणो इमो वि जोगो कि पुण जो भावणामग्गो ॥ एमाइ वत्युविसओ गहीणमुवएसमो मुणेयव्त्रो । जइणो पुण उवएसो सामायारी तहा सव्वा W
सद्धर्म के अनुरोध से - धर्माराधना में बाधा न आये, यह ध्यान में रखते हुए गृही साधक अपनी आजीविका चलाये, विशुद्ध - निर्दोष दान दे, वीतराग की पूजा करे, यथाविधि भोजन करे, सन्ध्याकालीन उपासना के नियमों का पालन करे । यह योग के अन्तर्गत है ।
चैत्य-वन्दन, यति - त्यागी साधु को स्थान, पात्र आदि का सहयोग, उनसे धर्म-श्रवण - गृही के लिए यह सब योग है । फिर भावना मार्ग का अभ्यास करे — मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य तथा अनित्यत्व, अशरणत्व, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्मस्वाख्यातत्व, लोक, बोधिदुर्लभत्व - मन में ये उत्तम भावनाएं लाने, उनसे अनुभावित एवं अनुप्राणित होने की तो बात ही क्या, वह तो योग का पावन पथ है ही ।
यह जो उपदेश किया गया है, गृहस्थ के लिए समझना चाहिए । साधु के लिए उपदेश समाचारी - आचार - विधि में आ जाता है । -समाचारी
[ ३३-३५ ]
गुरुकुलवासो गुरुतंतथाए उचियविणयस्स करणं च । वसहोपमज्जणाइसु जत्तो तह कालवेक्खाए ॥
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