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________________ मंगल-भावना योग मेरे जीवन का विषय है और मैं जानता हूँ कि इस विद्या का हमारी पुण्यभूमि भारत में जो विकास हुआ, वह सचमुच जगत् को उसकी अद्वितीय देन है। योग वह विद्या है, जो समय, स्थान आदि की सीमा में बँधी नहीं है । उस द्वारा ससीम आत्मा अपने असीम विराट् स्वरूप करे अधिगत कर सत्-चित्-आनन्दमय बन अकल्प्य, जाती है । गगन-मण्डल में एक अकल्प्य अतयं और अभेद्य ज्ञान राशि परिव्याप्त है, वह अप्राप्य नहीं है । प्राप्य हो जाए तो व्यक्ति क्या से क्या बन जाए। उसकी प्राप्यता का मार्ग योग है। योगी विश्वगत ज्ञान को साधना-बल द्वारा अपने में उतार पाता है। स्वयं उसकी दिव्य रसानुभूति तो करता ही है, अखण्ड भूमण्डल को उससे लाभान्वित भी कर सकता है। यह जो मैं लिख रहा हूँ, केवल शास्त्र-ज्ञान के आधार पर नहीं, हिमाद्रि की गहन कन्दराओं में साधानारत योगियों में जो मैंने पाया और यत् किञ्चित् स्वयं भी अनुभूत किया, वह भी उसका एक आधार है। मेरी भावना है, योग विद्या पर गहन अध्ययन हो, शोध-कार्य हो, अनुद्घाटित या विलुप्त सत्य उद्घाटित हों, इसके नाम पर चलती विडम्बनाएँ, प्रवञ्चनाएँ एवं छलनाएँ निरस्त हों। इसके लिये मैं यह परम आवश्यक समझता हूँ, हमारे ऋषि, महर्षियों ने, योगियों ने, आध्यात्मिक महापुरुषों ने जो सत्य शब्दबद्ध किया, उसे हम यथावत् समझें स्वायत्त करें। योगी परंपराबद्ध नहीं होता, वह साधनाबद्ध होता है। इसलिये मेरी दृष्टि में पतंजलि, व्यास, गोरख, हरिभद्र, नागार्जुन, सरहप्पा, कण्हप्पा, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र, योगीन्दुदेव, आनन्दघन आदि सभी योगिवर्य योगमणिमुक्ताग्रथित अमूल्य माला के मनोज्ञ मनके हैं। इनके विचारों की अनिर्वचनीय दीप्ति से हमें अपना अन्ततम उद्भासित करना है। इसके लिए यह नितान्त वाञ्छनीय है, इनका साहित्य हमें उपलब्ध हो। थोड़ा सा उपलब्ध है, बहुत सा अनुपलब्ध है, आज भी अप्रकाशित पड़ा है। कितना अच्छा हो, कोटि-कोटि भारतवासियों की राष्ट्रभाषा हिन्दी में वह समुपस्थापित हो सके। मुझे यह जानकर अत्यधिक हर्ष हुआ कि श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य विद्वद्रत्न, बहुश्रुत मनीषी परमश्रद्धय श्री मधुकर मुनि जी म० की छत्रच्छाया में भारतीय विद्या, जैन आगम आदि के सन्दर्भ में हो रहे विराट कार्य के अन्तर्गत योगवाङमय का कार्य भी चल रहा है। उन्हीं के धर्मसंघ की परम विदुषी, योगनिष्ठ आदर्श साधिका, समादरणीया महासती श्री उमरावकुंवर जी म० 'अर्चना' के मार्गदर्शन तथा संयोजन में मेरे अनन्य आत्मीय विद्वान डॉ० छगन लाल जी शास्त्री एम. ए., पी-एच. डी. ने, जिनकी प्रतिभा एवं वैदुष्य पर मुझे गर्व है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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