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२३२ | योगबिन्दु भी ऐसी योग्यता रखें, यह सर्वथा असम्भव है। बीज से ही अंकुर फूटता है, पत्थर से नहीं, उसी प्रकार कर्मरूप बोज के कारण ही आत्मा में वैसी योग्यता निष्पन्न होती है, अन्यथा नहीं।
[ ५२४ ] एवमाद्यत्र शास्त्रज्ञ स्तत्त्वतः स्वहितोद्यतैः । माध्यस्थ्यमवलम्ब्योच्चैरालोच्यं स्वयमेव तु ॥
वस्तुतः अपना हित-कल्याण साधने में समुद्यत शास्त्रवेत्ताओं को चाहिए, वे माध्यस्थ्य-भाव का अवलम्बन कर-तटस्थ होकर प्रस्तुत विषय -योग पर विशेष रूप से चिन्तन-विमर्श करें।
[ ५२५ ] आत्मीयः परकीयो वा कः सिद्धान्तो विपश्चिताम् ।
दृष्टेष्टाबाधितो यस्तु युक्तस्तस्य परिग्रहः ॥
विद्वानों के लिए कौन सिद्धान्त अपना है और कौन पराया है । जो दृष्ट-निरीक्षण-परीक्षण द्वारा बाधित न हो, इष्ट-अपने अभीप्सित लक्ष्य के प्रतिकूल न हो, उसे ग्रहण करना उनके लिए युक्त -समुचित है ।
[ ५२६ ] स्वल्पमत्यनुकम्पाय योगशास्त्रमहार्णवात् ।
आचार्यहरिभद्रेण . योगबिन्दुः समुद्धृतः ॥
सामान्य बुद्धि युक्त पुरुषों पर अनुग्रह करने हेतु, उन्हें लाभ पहुंचाने हेतु आचार्य हरिभद्र ने योगशास्त्ररूप महासागर से योग बिन्दु--योग की बूंद समुद्धृत की-निकाली। .
[ ५२७ ] समुद्धृत्याजितं पुण्यं यदेनं शुभयोगतः ।
भवान्ध्यविरहात् तेन जनः स्ताद् योगलोचनः ॥ - यों योगबिन्दु समुद्धृत कर शुभ योग द्वारा उन्होंने जो पुण्य अजित किया, उनकी भावना है, उसके फलस्वरूप मानव-समुदाय का भवभ्रमणरूप अन्धता से विरह हो-जन्म-मरण के चक्र में डालने वाला अज्ञान छूटे, उसे योगरूप नेत्र प्राप्त हो।
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