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________________ परिणामित्व ! थोड़ा और प्रकाश इसी विषय पर डाला जा रहा है । स्वनिवृत्ति: अस्त्वेवमपि नो दोषः कश्चिदत्र [ ४६६-५०० ] स्वभावश्चेदेवमस्य प्रसज्यते परिणामित्व एवैतत् आत्माभावेऽन्यथा तु परिणामित्व | २२५ एक ओर कर्म बाँधने की योग्यता आत्मा का स्वभाव है, दूसरी ओर उस योग्यता का निवर्तन भी उसका स्वभाव है । प्रश्न उपस्थित होता है, योग्यता का निवर्तन क्या स्वनिवृत्ति - अपने स्वभाव का स्वरूप का निवर्तन नहीं है ? इसका उत्तर है, किसी अपेक्षा से वैसा हो, उसमें कोई दोष नहीं स्वभावविनिवृत्तिश्च घटादेर्नवतात्यागे Jain Education International विभाव्यते ॥ सम्यगस्योपपद्यते 1 स्यादात्मसत्तेत्यदश्च न ॥ आता । आत्मा के परिणमनशील स्वभाव के कारण वह उपयुक्त ही है । आत्मा का कभी सर्वथा अभाव नहीं होता । सत्ता रूप में वह सदा सुस्थिर है । पर एक अवस्था छोड़ना, दूसरी में जाना, ऐसा तो उसके होता ही है । जब एक अवस्था छोड़ी जाती है तो आत्मा के उस अवस्थावर्ती भाव का अपगम होता है । वह अपगम आत्मा के ध्रुव अस्तित्व का अभाव नहीं है । [ ५०१ ] स्थितस्यापीह दृश्यते । तथा तद्भावसिद्धितः 11 जो वस्तु स्थित है— स्थिरतया विद्यमान है, उसमें स्वभाव - विशेष का परित्याग दिखाई देता ही है । जैसे घट आदि पदार्थ नवीनता को छोड़ते हैं - अपने नवीन भाव का व्यतीत होते समय के साथ परित्याग करते हैं, दूसरे भाव को स्वीकार करते हैं पर उनका मूल भाव - मौलिक अस्तित्व विद्यमान रहता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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