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________________ सर्वज्ञवाद | २२३ [ ४६१ ] . तत्स्वभावत्वतो यस्मादस्य तात्त्विक एव हि । क्लिष्टस्तवन्यसंयोगात् परिणामो भवावहः॥ आत्मा का ऐसा अपना स्वभाव है, अतएव उसकी परिणमनशीलता तात्त्विक-वास्तविक है। अन्य-विजातीय पदार्थों के संयोग से आत्मा क्लेशमय संसारावस्था में परिणत होती है। अविद्या-अज्ञान, अस्मिता-मोह, राग-महामोह, द्वेष-द्विष्टभाव एवं अभिनिवेश-सांसारिक विषयासक्ति तथा मृत्यु द्वारा सांसारिक विषयों के वियोग की भीति-योग में ये पाँच क्लेश कहे गये हैं। [ ४६२ ] स योगाभ्यासजेयो यत्तत्क्षयोपशमादितः । योगोऽपि मुख्य एवेह शुद्ध यवस्थास्वलक्षणः ॥ योगाभ्यास द्वारा आत्मा के क्लेशात्मक परिणामों का उपशम एवं क्षय होता है । आत्मशुद्धि की अवस्था योग का लक्षण है-योग से आत्मशुद्धि अधिगत होती है। [ ४६३ ] ततस्तथा तु साध्वेव तदवस्थान्तरं परम् । तदेव तात्त्विको मुक्तिः स्यात् तदन्यवियोगतः ॥ योग द्वारा आत्मा क्रमशः विकास करती हुई परं साधु-परम उत्तम ---अत्यन्त उत्कर्षमय अवस्था प्राप्त करती है। तत्त्वतः वही मुक्ति है। क्योंकि तदन्य-आत्मेतर विजातीय तत्त्व कर्म आदि से उसका वियोग हो जाता है-बन्धन से छुटकारा हो जाता है। [ ४९४ ] अत एव च निर्दिष्टं नामास्यास्तत्त्ववेदिभिः। वियोगोऽविद्यया बुद्धिः कृत्स्नकर्मक्षयस्तथा । यही कारण है, तत्त्ववेत्ताओं ने अविद्या से वियोग, बुद्धि (बोध) तथा सर्वकर्मक्षय आदि विशेषतामूलक नामों से इसे अभिहित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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