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________________ सर्वज्ञवाद | २२१ [ ४८६ ] बन्धाच्च भवसंसिद्धिः सम्बन्धश्चित्रकार्यतः । तस्यकान्तकभावत्वे न त्वेषोऽप्यनिबन्धनः । कर्म-बन्ध से संसारावस्था प्राप्त होती है । कर्म-बन्ध विविध प्रवृत्तियों के कारण होता है, जिसका प्रतिफल आत्मा के सांसारिक अस्तित्व की भिन्नभिन्न दशाओं तथा अनभूतियों में प्राप्य है। यदि आत्मा में एकान्त रूप में एकभावत्व-एकभावात्मकता-अपरिवर्तनशीलता मानी जाये तो सांसारिक रूपों, अनुभवों आदि की भिन्नता का फिर कोई कारण उपलब्ध नहीं होगा। कारण के बिना कार्य हो, यह असम्भव है। [ ४८७ ] नृपस्येवाभिधानाद् यः साताबन्धः प्रकीर्त्यते । अहिशङ्काविषज्ञाताच्चेतरोऽसौ निरर्थका ॥ किसी को केवल नाम से राजा होने के कारण राजोचित सुख नहीं मिल सकते । इसी प्रकार किसी को सांप काट गया हो, मात्र ऐसी शंका से उसके विष नहीं चढ़ जाता । ये मिथ्या कल्पनाएँ हैं। ऐसी ही स्थिति आत्मा के एकान्त-नित्यत्व - सिद्धान्त की है । कहने भर को कोई चाहे वैसा कहे पर वास्तव में वैसा होता नहीं। [ ४८८ ] एवं च योगमार्गोऽपि मुक्तये यः प्रकल्प्यते । सोऽपि निविषयत्वेन कल्पनामात्रभद्रकः॥ यदि एकान्त-नित्यत्व का सिद्धान्त मान लिया जाए तो मुक्ति के लिए जो योग-मार्ग बताया जाता है, उसका फिर कोई लक्ष्य नहीं रह जायेगा। वह केवल कहने भर के लिए सुन्दर होगा। .. [ ४८६ ] दिदृक्षादिनिवृत्त्यादि पूर्वसूर्यदितं तथा। आत्मनोऽपरिणामित्वे सर्वमेतदपार्थकम् ॥ पुरुष की दिदृक्षा-देखने की इच्छा की निवृत्ति हेतु प्रकृति सृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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