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________________ सर्वज्ञवाद | २१६ आत्मा को एकान्त नित्य मानने से उसमें या तो एकान्ततः कर्तृ भाव होगा या भोक्तृभाव होगा । अर्थात् वैसी स्थिति में आत्मा या तो एकान्तरूपेण कर्त्ता होगी या भोक्ता । कर्तृत्व, भोक्तृत्व - दोनों भाव उसमें एक साथ घटित नहीं होंगे । एकान्तकर्तृभावत्वे भोक्तभावनियोगेऽपि [ ४८० ] कथं भोक्तृत्वसंभवः । कर्तृत्वं ननु दुःस्थितम् ॥ ! एकान्त रूप में कर्तृ-भाव होने से भोक्तृ-भाव सम्भव नहीं होता ।" उसी प्रकार एकान्ततः भोक्तृ-भाव होने पर कर्तृ-भाव का होना कठिन हैकर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । Jain Education International [ ४८१ ] न चाकृतस्य भोगोऽस्ति कृतं वाऽभोगमित्यपि । उभयानुभयभावत्वे विरोधासंभव ध ुवौ ॥ अकृत -- नहीं किये हुए का भोग नहीं होता - जो किया ही नहीं गया है, उसे भोगना कैसे सम्भव हो । कृत - किये हुए का अभोग नहीं होताजो किया गया है, उसको भोगना ही होगा । वह अभुक्त कैसे रहेगा ? यदि आत्मा में उभय-कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व - दोनों ही स्थितियाँ मानी जायें तो सिद्धान्त में विरोध आयेगा । उसका यों मानना उसके कथन के विरुद्ध होगा । यदि आत्मा में अनुभय- दोनों ही स्थितियाँ न मानी जायें तो यह. एक असम्भव बात होगी । [ ४८२ ] विरुध्यते 1 यत्तथोभयभावत्वेऽप्यभ्युपेतं परिणामित्वसंगत्या न त्वागोऽत्रापरोऽपि वः 11 आत्मा का उभय भावत्व - आत्मा कर्त्ता है, भोक्ता है -यों उसके दोनों स्वरूपों का स्वीकार प्रतिवादी के विरुद्ध जाता है, जो उसे एकान्तनित्य मानता है । अतएव आत्मा का परिणामित्व - परिणमनशीलता मानना संगत है । ऐसा मानने से कहीं कोई दोष नहीं आता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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