SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञवाद | २१७ [ ४७३ ] न चात्मदर्शनादेव स्नेहो यत् कर्महेतुकः । नैरात्म्येऽप्यन्यथाऽयं स्याज्ज्ञानस्यापि स्वदर्शनात् ॥ आत्मा के दर्शन से आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने से स्नेहआसक्ति उत्पन्न होती है, ऐसा कहना संगत नहीं है । आसक्ति तो कर्मजनित है। । नैरात्म्यवादी दर्शन में जहाँ आत्मा को क्षणिक माना जाता है, वहाँ उस क्षण में ज्ञान द्वारा आत्म-दर्शन या आत्म-स्वीकार अपने आपका स्वीकार तो होता ही है। यदि यही आसक्ति का कारण हो तो नैरात्म्यवादी के लिए भी वैसा ही होगा। वह आसक्तिग्रस्त बनेगा । वास्तव में आत्मदर्शन से आसक्ति होने का खतरा बताकर आत्मा की स्वतन्त्र शाश्वत सत्ता स्वीकार न करना समुचित नहीं है । [ ४७४ ] अध्र वेक्षणतो नो चेत् कोऽपराधो ध्रवेक्षणे । तद्गता कालचिन्ता चेन्नासौ कर्मनिवृत्तितः ॥ अध्र वेक्षण-क्षणवादी दर्शन से-आत्मा को क्षणिक मानने से आसक्ति नहीं होती, यों मानते हो तो ध्रु वेक्षण-शाश्वत आत्मवादी दर्शन ने क्या अपराध किया है, उसके सन्दर्भ में भी कुछ चिन्तन करो। आत्मवाद के स्वीकार से काल-चिन्ता-भविष्य में आसक्ति होने का जो भय देखते हो, वैसा कुछ नहीं है । ज्योंही कर्मों की निवृत्ति हो जाती है, आसक्ति, स्नेह, ममता-सब मिट जाते हैं। [ ४७५ ] उपप्लववशात् प्रेम सर्वत्रैवोपजायते । निवृत्ते तु न तत् तस्मिन् ज्ञाने ग्राह्यादिरूपवत् ॥. सर्वत्र उपप्लव-मोह, माया आदि के कारण प्रेम उत्पन्न होता है। जब मोह नहीं रहता, माया नहीं रहती तो प्रेम या आसक्ति नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy