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________________ २४ ) आध्यात्मिक विकास की भूमियों का विवेचन जैन परम्परागत 'गुणस्थान क्रम से स्वतंत्र मित्रा, तारा, प्रभा, परा प्रभृति आठ दृष्टियों में करके तथा पातञ्जल योग एवं बौद्ध योग की विकास भूमियों से उनका समन्वय करते हुए, पातञ्जल योग के यमनियमादि आठों अंगों का स्व-प्रणीत जैन योग साधना पद्धति में समाहार करके आचार्य हरिभद्र ने आठवीं शती ई० में योग-साधना का अभूतपूर्व सर्वांगीण और सार्वजनीन पथ प्रशस्त किया । दुराग्रह का तो प्रश्न ही नहीं, उनकी योग-विषयक रचनाओं में साम्प्रदायिक आग्रह की गन्ध तक कहीं नहीं आ सकती । आचार्य हरिभद्र की इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि योग और अध्यात्म जैसे दुर्बोध विषयों को, जिनमें सिद्धान्त की अपेक्षा व्यवहार कहीं अधिक दुर्गम, दुर्बोध्य एव असाध्य होता है, व इनमें सामंजस्य कठिन हो जाता है, तथा योग मार्ग की व्यावहारिक कठिनाइयों को इस प्रकार समझाया और सुलझाया है कि ज्ञानवान् और अज्ञानी, अल्पश्रुत और बहुश्रुत, सबल और निर्बल, हठयोगी व सहजयोगी, भक्तिमार्गी या ज्ञानमार्गी, और कर्मयोगी अथवा कर्म-संन्यासी - सभी प्रकार के साधक आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर सरलतापूर्वक चल सकते हैं । सक्षप में उनके द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग केवल मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ मात्र नहीं अपितु अनादि-अनन्त भवसागर में हाथ पकड़कर, यान पर आरूढ़ करके साथ ले चलने वाले उस पारगामी नाविक के समान है, जो स्वयं तो पार जाता ही है अन्यों को भी पार करा देता है । और इस प्रकार आचार्य हरिभद्र की योग विषयक रचनाएँ बोधिसत्त्व की उस प्रतिज्ञा का स्मरण दिलाती हैं, जहाँ वह कहता है न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामतिनाशनम् ॥ आचार्य हरिभद्र को जैसे स्वयं कुछ नहीं चाहिए, कोई आचार्य मुष्टि नहीं कोई रहस्य नहीं । उन्होंने जैसे शताब्दियों - सहस्राब्दियों के योगियों और मुमुक्षुओं के अनुभवों को अपनी इन रचनाओं में शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर जैसे खोल-खोल कर स्पष्ट करके रख दिया है । और यहीं पुनः याद आता है महाकारुणिक शास्ता गौतम बुद्ध का यह कथन -- “भिक्षुओं ! मैंने कोई आचाय मुष्टि (गुरु के हृदय में निहित रहस्यमयता) नहीं रखी, भीतर और बाहर कुछ भी न छिपाते हुए धर्म का उपदेश दिया है और जो मार्ग बतलाया है, वह ऐसा है, जिस पर चलकर आदमी जीते-जी निर्वाण प्राप्त करता है, जो काल से सीमित नहीं, जिसके बारे में कहा जा सकता है कि आओ और स्वयं देख लो, जो ऊपर उठाने वाला है, जिसे स्वयं प्रत्यक्ष कर सकता है ।" (सच्चसंगहो भू. पृ० १३) हैं आचार्य हरिमद्र की योग-विषयक रचनाएँ | प्रत्येक बुद्धिमान आदमी । ऐसा ही मार्ग दिखाती इन रचनाओं का जब भी परिशीलन करता हूँ और इनकी अतल गहराइयों में डुबकी लगाने का उद्यम करता हूँ तो आनन्द-विभोर हो उठता हूँ और नया प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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