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वृत्तिसंक्षय | २०१ तथा शुक्ल, ऋण एवं मिश्रित ये तीन कर्म-संस्कार सर्वथा उच्छिन्न हो जाते हैं।'
धर्ममेघ शब्द बौद्ध परम्परा में भी प्रयुक्त है । बौद्ध धर्म की महायान शाखा में बुद्धत्वप्राप्ति के सन्दर्भ में विकास की दस भूमियां मानी गई हैं, जिनमें अन्तिम (भूमि) धर्ममेघ है । यह विकास या उन्नति की चरमावस्था है। इसमें बोधिसत्त्व सर्वविध समाधि स्वायत्त कर लेता है। इस भूमि का एक नाम अभिषेक भी है । जैसे कोई नृपति अपने कुमार को यौवराज्य में अभिषिक्त करता है, वैसे ही साधक यहाँ बुद्धत्व में अभिषिक्त हो जाता है । उसका साध्य सिद्ध हो जाता है, प्राप्य प्राप्त हो जाता है। यह साधना के पर्यवसान की स्वर्णिम बेला है ।
[ ४२३ ] मण्डूक-भस्म-न्यायेन वृत्तिबीजं महामुनिः।
योग्यतापगमाद् दग्ध्वा ततः कल्याणमश्नुते ॥
महान् साधक मण्डूक-भस्म-न्याय से वृत्तियों के बीज को जला देता है । आत्मा की कर्म-बन्ध करने की योग्यता अपगत हो जाती है । वह कल्याण-मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
[ ४२४ ] यथोदितायाः सामग्रयास्तत्स्वभावनियोगतः । योग्यतापगमोऽप्येवं सम्यग् ज्ञेयो महात्मभिः ॥
जब पूर्णवणित योग-साधन स्वभावानुगत हो जाते हैं, स्वायत्त हो जाते हैं तो आत्मा की कर्म-बन्ध की योग्यता का अपगम हो जाता है, जो योगी का लक्ष्य है । उद्बुद्धचेता पुरुषों को इसे समझना चाहिए।
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१. ततः क्लेशकर्म निवृत्तिः ।
-पातञ्जल योगसूत्र ४.३० २. मुदिता, विमला, प्रभाकरी, अधिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुक्ति, दूरंगमा, अचला, साधमती, धर्ममेघ ।
-बौद्ध दर्शन मीमांसा : पं. बलदेव उपाध्याय पृष्ठ १४०-१४२
(सन् १९५४, चौखम्बा विद्या भवन, चौक, बनारस-१) ३. इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत 'योग शतक' की ८६ वीं गाथा के सन्दर्भ में मण्डक___ भस्म-न्याय' का विस्तृत विवेचन किया गया है।
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