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________________ वृत्तिसंक्षय | १६९ की दो श्रेणियाँ निःसृत होती हैं-१. उपशम-श्रेणि, २. क्षपकश्रेणि या क्षायक श्रेणि। उपशम-श्रेणि द्वारा आगे बढ़ने वाला साधक नवम गुणस्थान में क्रोध, मान, माया को तथा दशम गुणस्थान में लोभ को उपशान्त करता हुआदबाता हुआ ग्यारहवें- उपशान्त मोह गुणस्थान में पहुंचता है। क्षपक-श्रेणि द्वारा आगे बढ़ने वाला साधक नवम गुणस्थान में क्रोध, मान, माया को तथा दशम गुणस्थान में लोभ को क्षीण करता हुआ, दशम के बाद सीधा बारहवें-क्षीणमोह-गुणस्थान में पहुंचता है। उसके बाद क्रमशः तेरहवें सयोगकेवली तथा चवदहवें अयोग केवली गुणस्थान में पहुंच जीवन का चरम साध्य-मोक्ष पा लेता है। उपशम-श्रेणि द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचने वाला साधक क्रोध, मान, माया व लोभ के उपशम द्वारा वहाँ पहुंचता है, क्षय द्वारा नहीं। क्षय सर्वथा नाश या ध्वंस है। उपशम में उन (क्रोध, मान, माया तथा लोभ) का अस्तित्व मूलतः मिटता नहीं, केवल कुछ समय के लिए उपशान्त होता है । इसे राख से ढकी अग्नि के उदाहरण से समझा जा सकता है । आग पर आई हुई राख की पर्त जब तक विद्यमान रहती है, आग जलाती नहीं। पर्त हटते ही आग का गुणधर्म प्रकट हो जाता है । वह जलाने लगती है । उपशान्त कषायों की यही स्थिति है । वे पुनः उभर आते हैं । अत: ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचे हुए साधक का अन्तर्मुहूर्त के भीतर नीचे के गुणस्थानों में पतन अवश्यम्भावी होता है । साधक को पुनः आत्मपराक्रम का सम्बल लिए आगे बढ़ना होता है । बढ़ते-बढ़ते जब भी वह क्षपक-श्रेणि पर आरूढ़ हो पाता है, आगे चलकर अपना साध्य साध लेता है। [ ४२१ ] असम्प्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः। निरुद्धाशेषवृत्त्यादि तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ सर्वज्ञत्व, कैवल्य पा लेने के बाद आगे जो योग सधता है, वह पातंजल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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