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________________ १९२ | योगबिन्दु उत्तरोत्तर बढ़ते जाना, शुद्धभाव से प्रणमन आदि करना-इत्यादि पूर्वक देव-पूजन का विधान है। प्रतिक्रमण [ ४०० ] प्रतिक्रमणमप्येवं सति दोषे प्रमादतः। तृतीयौषधकल्पत्वाद् द्विसन्ध्यमथवाऽसति ।। यदि प्रमाद-शुद्ध उपयोग के अभाव या धर्म के प्रति आत्मपरिणामगत अनुत्साह, असावधानी के कारण दोष-सेवन हो जाए तो दिन में दो बार -प्रातः एवं सायं प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि दोष सेवन न हुआ हो तो भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह तीसरे. वैद्य की औषधि की ज्यों आत्मा के लिए लाभप्रद, श्रेयस्कर सिद्ध होता है। ग्रन्थकार ने तीसर वैद्य की औषधि का उल्लंघन करते हुए जिस दृष्टान्त की ओर संकेत किया है, वह जैन-साहित्य का प्रसिद्ध दृष्टान्त है, जो इस प्रकार है - एक राजा था। उसका युवा पुत्र-युवराज अस्वस्थ रहने लगा। राजा ने अपने राज्य के तीन विख्यात वैद्यों को बलाया और प्रत्येक वैद्य को अपनी-अपनी औषधि का गुण बताने को कहा । पहला वैद्य बोला--मेरी औषधि बड़ी प्रभावकारी है । जिस रोग पर दीजिए उसे सर्वथा नष्ट कर देती है। पर एक बात है, यदि वह रोग न हो तो दूसरा रोग उत्पन्न कर देती है। राजा बोला-वैद्यवर ! आपकी औषधि भयजनक है। राजकुमार के लिए उसका उपयोग समीचीन नहीं है। दूसरे वैद्य ने कहा-मेरी औषधि की यह विशेषता है, जिस रोग पर दीजिए, उसे बिलकुल मिटा देती है। यदि रोग न हो तो उससे न लाभ होता है और न हानि । राजा को दूसरे वैद्य की औषधि भी उपयुक्त नहीं जची। तब तीसरे वैद्य ने बताया-राजन् ! मेरी औषधि औरों से निराली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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