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faar शुद्ध अनुष्ठान | १४७
शास्त्र में महापुरुषों ने मयूर के दृष्टान्त द्वारा सद्योग साधक का जो आख्यान किया है, उनका अभिप्राय यह है कि जैसे मयूरी के अण्डे, उसके सार, गुण आदि की शक्ति अन्य पक्षियों के अण्डों की तुलना में असाधारण विशेषता युक्त होती है । उत्पन्न होने वाले मयूर - शिशु का मूल अण्डे में ही तो है, जो समय पाकर सर्वांगसम्पन्न बाल - मयूर के रूप में आविर्भूत होता है। इसी प्रकार उत्तम योगसाधक की अपनी कुछ ऐसी अन्तर्निहित विशेषताएँ होती हैं, जो यथासमय विशिष्ट, समुन्नत योगोपलब्धि के रूप में प्राकट्य पाती हैं ।
[ २४६ ]
प्रवृत्तिरपि चैतेषां धैर्यात् सर्वत्र वस्तुनि । अपायपरिहारेण दीर्घालोचनसङ्गता ॥
ऐसे उत्तम योगियों की सब वस्तुओं में, सब कार्यों में विघ्नों का परिहार करते हुए धैर्य तथा गहन चिन्तनपूर्वक प्रवृत्ति होती है ।
[ २४७ ] तत्प्रणेतृसमाक्रान्तचित्तरत्नविभूषणा साध्यसिद्धावनौत्सुक्यगाम्भीर्यस्तिमिताननाः
योग-प्रणेताओं - महान् योगाचार्यों के सदुपदेश, विचार-दर्शन आदि से ऐसे सद्योगाभ्यासी पुरुषों का चित्तरूपी रत्न विभूषित रहता है अर्थात् वे अपने चित्त में तत्प्ररूपित दिव्य ज्ञान को संजोये रहते हैं । उनका व्यक्तित्व इतना उदात्त होता है कि अपना साध्य सिद्ध हो जाने पर भी वे विशेष उत्सुकता, उमंग नहीं दिखलाते, गम्भीर तथा स्थिर मुख-मुद्रा-युक्त रहते हैं ।
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[ २४८ ] फलवद् द्र मसद्बीजप्ररोहसदृशं साध्वनुष्ठानमित्युक्तं सानुबन्धं महर्षियों ने उत्तम, उत्तरोत्तर प्रशस्त श्रृंखलामय अनुष्ठान को फलों से आच्छन्न वृक्ष के श्रेष्ठ बीज तथा अंकुर के सदृश कहा है, बीज तथा
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तथा
महर्षिभिः ॥
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