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________________ १०६ | योगबिन्दु परिणत हो जाते हैं, उसी प्रकार अन्तिम पुद्गल परावर्त में आत्मा योग को प्राप्त कर लेती है। [ ६७ ] / अत एवेह निर्दिष्टा पूर्वसेवाऽपि या परैः । साऽऽसन्नान्यगता मन्ये भवाभिष्वङ्गभावतः ॥ अन्य योगवेत्ताओं ने पूर्वसेवा को योग के अंगरूप में आख्यात किया है। पर वह अन्तिम पुद्गल परावर्त से पूर्ववर्ती परावर्तों में होती है, तब उसमें सांसारिक आसक्ति बनी रहती है। [ ६८ ] अपुनर्बन्धकादीनां भवाब्धौ चलितात्मनाम् । नासौ तथाविधा युक्ता वक्ष्यामो मुक्तिमत्र तु ॥ जो अपुनर्बन्धक आदि अवस्थाओं हैं, जिनकी अन्तरात्मा संसारसागर से निकल जाने के लिए तिलमिलाती है-सांसारिक भोगोपभोगमय प्रलोभनों के प्रति जिनके मन में जुगुप्सा का भाव उत्पन्न हो रहा है, उन द्वारा समाचरित होते पूर्वसेवा रूप कार्य इस श्रेणी में नहीं आते । इस सम्बन्ध में आगे चर्चा करेंगे। [ ६६ ] मुक्तिमार्गपरं युक्त्या युज्यते विमलं मनः । सद्बुद्ध यासन्नभावेन यदमीषां महात्मनाम् ॥ अपुनर्बन्धक आदि सात्त्विकचेता पुरुषों का निर्मल मन सद्बुद्धिसम्यक्ज्ञान आदि की उत्तरोत्तर विकासोन्मुखता-आगे से आगे समुन्नत होती गुणस्थान-परंपरा के कारण मुक्ति-परायण होता है, यह युक्ति युक्त है। गोपेन्द्र का अभिमत [ १००-१०४ ] तथा चान्यैरपि ह्येतद् योगमार्गकृतश्रमैः । संगीतमुक्तिभेदेन यद् गौपेन्द्रमिदं वचः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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