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अन्तर्मुखी हो जाता है तो वह काया पलट कर देता है । आचार्य हरिभद्र के साथ ऐसा ही हुआ । उन्होंने परम-त्यागमय श्रमण जीवन के स्वीकार में विलम्ब नहीं किया । तत्काल श्रमण- प्रव्रज्या अंगीकार कर उन्होंने जैन आगम, दर्शन, न्याय तथा तत्सम्बद्ध अन्यान्य शास्त्रों का अहर्निश परिशीलन किया । क्षयोपशमजनित प्रतिभा का सुयोग उन्हें प्राप्त था ही, श्रम के साहचर्य से प्रतिभा फल- निष्पत्ति लाने में कितनी सफल होती है, आचार्य हरिभद्र सूरि के जीवन से यह स्पष्ट है । थोड़े ही समय में उन्होंने जैन विद्या की अनेक शाखाओं पर असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिया । उनके अध्ययन, चिन्तन से जिज्ञासु तथा मुमुक्षुजन लाभान्वित हों, उस हेतु उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की; जो आगम व्याख्या, धर्म, दर्शन, कथाकृति आदि अनेक रूपों में प्रकाश में आए। जैन वाङ् मय के क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, असाधारण देन उन्होंने और दी । वह है उनका जैनयोग सम्बन्धी साहित्य |
भारत के साधना क्षेत्र में उस समय योग का विशेष प्रचलन था । योग के सन्दर्भ में बहुमुखी चिन्तन प्रकाश में आ रहा था, ग्रन्थ रचनाएँ हो रही थीं । एक ओर शैवयोगी, नाथयोगी, हठयोगी अपने-अपने साधना क्षेत्र में प्रवृत्त थे तथा दूसरी ओर सहजयान या वज्रयान का अपना योगक्रम चल रहा था, जिसे सहजयानी सिद्धयोगी अपनी दृष्टि से विकसित कर रहे थे । यह सब देख परम प्रबुद्ध मनीषी, अनेक शास्त्र निष्णात, परमोच्च साधक आचार्य हरिभद्र सूरि के मन में संभवतः एक ऐसी संस्फुरणा हुई हो कि जैन - साधना पद्धति को भी जैन योग के रूप में अभिनव विधा के साथ प्रस्तुत किया जाए । उसी का फल है, उन्होंने जैन योग पर योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक तथा योगविंशिका नामक चार ग्रन्थ लिखे । उनमें पहले दो संस्कृत में हैं तथा अन्तिम दो प्राकृत में । इनके अतिरिक्त शास्त्रवातसमुच्चय, षोडशक, अष्टक आदि अपने अन्यान्य ग्रन्थों में भी उन्होंने यथाप्रसंग योग की चर्चा की है । आचार्य हरिभद्र महान् विद्वान् होने के साथ-साथ महान् अध्यात्मयोगी भी थे । इसलिए उनके जीवन के कण-कण में योग मानों अनुस्यूत था । ऊन्हें योग में बड़ी निष्ठा थी, जो उनके निम्नांकित शब्दों से प्रकट होती है :
योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है— कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि रत्न की तरह साधक की इच्छाओं को पूर्ण करता है । वह (योग) सब धर्मों में मुख्य है तथा सिद्धि - जीवन की चरम सफलता - मुक्ति का अनन्य हेतु है । जन्म रूपी बीज के लिए योग अग्नि है-संसार में बार-बार जन्म-मरण में आने की परंपरा को योग नष्ट करता है । वह बुढ़ापे का भी बुढ़ापा है । योगी कभी वृद्ध नहीं होता - वृद्धत्व -जनित अनुत्साह, मान्द्य, निराशा योगी में व्याप्त नहीं होती । योग दुःखों के लिए राजयक्ष्मा है । राजयक्ष्मा - क्षय रोग जैसे शरीर को नष्ट कर
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