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१०२ | योगबिन्दु
[ ८१
वृथा कालादिवादश्चेन्न अकिंचित्कर मे तच्चेन्न
]
तद्बीजस्य भावतः स्वभावोपयोगतः 11
स्वभाव मानने से काल आदि वृथा सिद्ध होंगे, ऐसा नहीं है । क्योंकि काल, नियति, कर्म तथा पुरुषार्थ के बीज स्वभाव में सन्निहित हैं । यदि यों कहा जाये कि बीज तो अकिञ्चित्कर हैं - वे स्वयं कुछ कर नहीं सकते - यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि स्वभाव में उनका उपयोग है— स्वभाव में के सहायक हैं, जिससे फल- निष्पत्ति सधती है ।
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[ ८२ ]
सामग्रयाः कार्यहेतुत्वं तदन्याभावतोऽपि हि । तदभावादिति ज्ञेयं कालादीनां वियोगतः 11
समग्र कारण सामग्री का सहयोग कार्य की निष्पन्नता में हेतु होता है । यदि उपादान के अतिरिक्त दूसरे किसी निमित्त का अभाव हो, कारणसामग्री में उसका संयोग न रहे तो कार्य नहीं होता। इसलिए समय आदि का संयोग भी कार्य - निष्पत्ति में कारणभूत है, ऐसा मानना चाहिए ।
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[ ८३ ]
प्रपञ्चेन
एतच्चान्यत्र महता नेह प्रतन्यतेऽत्यन्तं लेशतस्तूक्तमेव
निरूपितम् । हि 1
प्रस्तुत विषय में अन्यत्र विस्तार से निरूपण किया गया है अतः यहाँ इसकी विशेष चर्चा नहीं की गई है, संक्षेप में कहा गया है । लोकपक्ति
[ ८४-८५ ]
कृतमत्र प्रसंगेन प्रकृतं नाध्यात्मयोगभेदत्वादावर्तेष्वपरेष्वपि
तीव्रपापाभिभूतत्वाज्ज्ञानालोचनवजिताः सद्वमवतरन्त्येषु न सत्वा गहनान्धवत
प्रस्तुमोऽधुना
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