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योग का माहात्म्य | ER
अधिक क्या कहा जाए, योग से स्थिरता, धीरज, श्रद्धा, मैत्री, लोकप्रियता, प्रतिभा-अन्तःस्फुरणा-अन्तःर्ज्ञान द्वारा तत्त्व-प्रकाशन, आग्रहहीनता, अनुकूल से वियोग, प्रतिकूल का संयोग जैसे विषम द्वन्द्वों को सहनशीलता के साथ झेलना, वैसे कष्टों का अभाव-न आना, यथासमय अनुकूल बाह्य स्थितियाँ प्राप्त होना, सन्तोष, क्षमाशीलता, सदाचार, उत्तम फलमय योगवृद्धि, औरों की दृष्टि में आदेय भाव-आदर्श पुरुष के रूप में समादर, गुरुत्व-गौरव-प्रतिष्ठा तथा सर्वोत्तम प्रशम-सुख-अनुपम शान्ति की अनुभूति-ये सब प्राप्त होते हैं।
[ ५५ ] आविद्वदङ्गनासिद्धमिदानीमपि दृश्यते । एतत् प्रायस्तदन्यत् तु सुबह्वागमभाषितम् ॥
विद्वानों से लेकर महिलाओं तक आज भी यह अनुभवसिद्ध है, ऐसा देखने में आता है। इस प्रकार की और भी अनेक बातें हैं, जो आगमों में विस्तार से वणित हैं।
[ ५६ ] न चैतद् भूतसंघातमात्रादेवोपपद्यते । तदन्यभेदकाभावे तवैचिव्याप्रसिद्धितः
जगत् में केवल भूत-संघात-भूत-समुदाय को ही वास्तविकता माना जाए तो योग का यह माहात्म्य घटित नहीं होता । भौतिक, अभौतिक का भेद करने वाले, भौतिक से इतर आत्मरूप स्वतन्त्र तत्त्व के न होने से अयोगी से योगी के ज्ञान की विचित्रता-सातिशय विभिन्नता अप्रसिद्धअप्रकट ही रहेगी। अतः भूतसंघात से अन्य-आत्मा के रूप में निश्चय ही एक और तत्त्व है, जिसके कारण योग, अध्यात्म-साधना आदि की प्रयोजनीयता तथा फलवत्ता सिद्ध होती है ।
[५७-५८ ] ब्रह्मचर्येण तपसा सद्व दाध्ययनेन विद्यामन्त्रविशेषेण सत्तीसेवनेन
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