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कुलयोगी आदि का स्वरूप | ७५
प्रस्फुटित होंगे, योगरूप कल्पवृक्ष फलेगा, फूलेगा, मोक्षरूप दिव्य अमृतफल प्रदान करेगा।
___ दिग्गज विद्वान्, महान् योगी आचार्य हरिभद्र ने, जो निःसन्देह अपने युग के श्रुतचक्रवर्ती थे, प्रस्तुत प्रसंग में अपने को जड़बुद्धि के रूप में उपस्थित कर जो अपरिसीम ऋजुता-सरलता अभिव्यक्त की है. वह निश्चय ही उनकी आध्यात्मिक महत्ता तथा तत्त्वतः आत्मसात्कृत उत्कृष्ट योग साधना का परिचय है।
[ २२३ ] तात्त्विकः पक्षपातःच भावशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव
शंका उठाई जा सकती है-केवल तात्त्विक पक्षपात से क्या बनेगा, यह तो भावना-मूलक है, धर्माराधना के लिए तो क्रिया चाहिए । इस पर आचार्य समाधान देते हैं तात्त्विक पक्षपात तथा भावशून्य क्रिया में इतना अन्तर मानना चाहिए, जितना सूर्य तथा जुगनू के प्रकाश में है।
सत्तत्त्व में पक्षपात-अभिरुचि, स्पृहा, आग्रह का बहुत बड़ा फल है। क्योंकि इससे जीवन सत्यपरक बनता है, जिसकी उत्तरवर्ती फलनिष्पत्ति सच्चारित्र के उन्नयन और आत्मस्वरूप के अधिगम में होती है । भावशून्य या अज्ञानपूर्ण क्रिया चिरकाल तक की जाती रहे तो भी उस आत्मा का कार्य नहीं सधता क्योंकि वह यथार्थलक्ष्यगामी नहीं होती। ठीक मार्ग ग्रहण किये बिना यदि कोई अनन्तकाल तक (स्वर्गादि विभिन्न दशाओं में से गुजरता हुआ) क्रियाशील, गतिशील रहे तो भी जीवन का साध्य-आत्मकल्याण उसे प्राप्त नहीं होता। इसलिए यदि कोई माने कि क्रिया करते जाएँ, अन्ततः स्वयं उससे कल्याण सधेगा ही तो यह सर्वथा अयुक्त है। . सत्तत्त्वाभिरुचि एवं सदास्था के बिना वह आत्माभ्युदय की दृष्टि से निरर्थक है।
[ २२४ ] खद्योतकस्य यत्तेजस्तदल्पं च विनाशि च । विपरीतमिदं भानोरिति भाव्यमिदं बुधैः ॥
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