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मुझे यह प्रकट करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता होती है कि आयुष्मती, अन्तेवासिनी, परम विदुषी, कुशलयोग-साधनानुरता, स्वाध्याय-ध्यान-प्रवणा, सरलचेता महासती श्री उमरावकुबर जी 'अर्चना' के कुशल मार्गदर्शन तथा निष्ठापूर्ण संयोजन में भारतीय वाङमय, जैन दर्शन एवं संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश आदि प्राच्य भाषाओं के विद्वान डॉ० छगनलाल जी शास्त्री, एम० ए०, पी-एच० डी० ने उक्त चारों ग्रन्थों को संपादित, अनूदित, विविक्त कर वास्तव में जैन साहित्य के क्षेत्र में बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आचार्य हरिभद्र सूरि जैसे अपने युग के परम प्रज्ञाशील उद्भट मनीषी तथा समन्वयवादी महान चिन्तक द्वारा रचित इतना उपादेय एवं उपयोगी साहित्य राष्ट्र भाषा हिन्दी में प्राप्त न हो, सचमुच यह बड़ी अखरने वाली कमी थी। प्रस्तुत प्रकाशन द्वारा यह अभाव सम्यक् रूप में पूरा हो रहा है, जो स्तुत्य है।
महासती श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' एवं विद्वद्वर डा० छगनलाल जी शास्त्री के इस सत्प्रयास की मैं हृदय से वर्धापना करता हूँ तथा कामना करता हूँ कि उन द्वारा श्रुत-सेवा के और भी अनेक सुन्दर कार्य सुसम्पन्न हों।
जिज्ञासु, मुमुक्ष तथा अनुसन्धित्सु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
--युवाचार्य मधुकर मुनि नोखा चांदावतों का (राजस्थान) १२-११-८१
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