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________________ ४६ | योगदृष्टि समुच्चय गुरु, देवता, ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी साधु-ये सत्पुरुष प्रयत्न युक्त चित्त से तन्मयता तथा श्रद्धापूर्वक पूजनीय-सम्मान करने योग्यसत्कार करने योग्य हैं। [ १५२ ] पापवत्स्वपि चात्यन्तं स्वकर्मनिहतेष्वलम् । अनुकम्पैव सत्त्वेषु न्याय्या धर्मोऽयमुत्तमः । मुमुक्षु पुरुषों में सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा या दया का भाव रहे, यह तो है ही पर अपने कुत्सित कर्मों द्वारा निहत-अत्यन्त पीड़ित पापी प्राणियों के प्रति भी वे अनुकम्पाशील हों, यह न्यायोचित-अपेक्षित है। यों पर-पीड़ावर्जन, परोपकारपरायणता, गुरु, देव, ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता तथा यतिजन का सत्कार, पापी जीवों पर भी अनुकम्पा-भाव-साधक द्वारा जीवन में इनका क्रियान्वयन उत्तम धर्म है। [ १५३ ] कृतमत्र प्रसंगेन प्रकृतं प्रस्तुमोऽधुना । तत्पुनः पञ्चमी तावद्योगदृष्टिमहोदया । प्रसंगवश ऊपर जो कहा गया है, वह पर्याप्त है । अब मूलतः चालू विषय को प्रस्तुत करते हैं । वह (चालू विषय) पाँचवीं स्थिरा-दृष्टि है, जो आत्मा के महान् उदय-परम उत्थान से सम्बद्ध है। 'स्थिराइष्टि [ १५४ ] स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च । कृतमभ्रान्तमनवं सूक्ष्मबोधसमन्वितम् ॥ स्थिरा-दृष्टि में दर्शन नित्य-अप्रतिपाती-नहीं गिरने वाला होता है, प्रत्याहार-स्व-स्व-विषयों के सम्बन्ध से विरत होकर इन्द्रियों का चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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