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________________ ३८ | योगदृष्टि समुच्चय लेने तथा ग्रहण कर लेने के बाद संमोह या भ्रम नहीं रहता । इसलिए क्रियान्वयनपूर्वक ज्ञान की परिष्कृत अवस्था को असंमोह कहा गया है । [ १२३ ] प्रोतिर विघ्नः करना, आदर: जिज्ञासा करणे तज्ज्ञसेवा १. आदर - - क्रिया के प्रति आदर, सुत्न, उपयोगपूर्वक क्रिया करना, २. प्रीति -- क्रिया के प्रति आन्तरिक अभिरुचि, सरसता, ३. अविघ्न - - निर्विघ्नता, पूर्वार्जित पुण्यवश निर्बाधरूप में क्रिया ४. सम्पदागम - - सम्पत्ति -- धन, वैभव आदि द्रव्य सम्पत्ति तथा विद्या विनय, विवेक, शील, वैराग्य आदि भाव- सम्पत्ति का प्राप्त होना, ५. जिज्ञासा -- जानने की तीव्र उत्कण्ठा रखना, ६. तज्ज्ञ सेवा -- ज्ञानी पुरुषों की सेवा करना, ७. तज्ज्ञ - अनुग्रह -- ज्ञानी जनों की कृपा पाना, के लक्षण हैं । ये 'सदनुष्ठान बुद्धिपूर्वाणि संसार फलदान्येव सम्पदागमः 1 च सदनुष्ठानलक्षणम 11 [ १२४ ] कर्माणि Jain Education International सर्वाण्येवेह देहिनाम् । विपाकविरसत्त्वतः ॥ यहाँ संसार में सामान्यतः प्राणियों के सभी कर्म बुद्धि-- इन्द्रियजनित बोध द्वारा होते हैं । विषयप्रधान वे विपाकविरस - - परिणाम में नीरस -- असुखद हैं । उनका फल संसार -- जन्म-मरण के चक्र में भटकना है । [ १२५ ] ज्ञानपूर्वाणि तान्येव म ुक्त्यङ्गः कुलयोगिनाम् । श्रुतशक्तिस नवशादनुबन्धफलत्वतः ज्ञानपूर्वक किये गये वे ही कर्म कुलयोगियों के लिए मुक्ति के अंग हैं। आप्त वचन रूप शास्त्रशक्ति -- आगम ज्ञान की शक्तिमत्ता के समावेश के कारण वे शुभ फलप्रद सिद्ध होते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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